उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित सिद्धबली मंदिर, कोटद्वार से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर खोह नदी के बाएँ तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। तीजों और रंगों की छटा से आच्छादित यह स्थान केवल आस्था का केंद्र ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक सौंदर्य और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरपूर एक प्राचीन तपोभूमि है। यह मंदिर श्री सिद्धबाबा के तपोस्थान के रूप में प्रसिद्ध है, जहाँ भक्तों का विश्वास है कि हनुमानजी सदैव उपस्थित रहते हैं और अपने भक्तों का कल्याण करते हैं।
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खोह नदी का प्राचीन महत्व — कौमुदती नदी का पुराणों में वर्णन –
स्थानीय रूप से प्रसिद्ध खोह नदी को पुराणों में कौमुदती नदी के नाम से जाना गया है। माना जाता है कि यह नदी डांगमण्डी क्षेत्र और हेमवन्ती (हूल) नदी के दक्षिण से निकलती है। केदारखंड, अध्याय 115, श्लोक 25 में इसका वर्णन इस प्रकार मिलता है—
“गढ़धारोत्तरेषु गैङ्गायाः प्राच्यम्भागेषु
नदी कौमुदती ख्याताऽ सर्वदायिन्द्रनाशिनी।।“
अर्थात हरिद्वार के उत्तर-पूर्व में स्थित पवित्र कौमुख तीर्थ के पास बहने वाली यह नदी इन्द्र के पापों का नाश करने वाली कही गई है।
विद्वानों का मत है कि कौमुख तीर्थ के जो लक्षण व दिशाएँ पुराणों में वर्णित हैं, वे सिद्धबली क्षेत्र पर सटीक रूप से लागू होती हैं, जिससे यह स्थान कौमुख तीर्थ होने का गौरव प्राप्त करता है।कुमुद (बबूल) पुष्प की गंध से जुड़ी अद्भुत मान्यता केदारखंड के अध्याय 119, श्लोक 6 में लिखा है—
“कुमुदस्य तथा गण्धो लक्षयेत् मध्यभागतः।”
माना जाता है कि रात्रि के समय यहाँ कुमुद (बबूल) की सुगंध स्वतः अनुभव होती है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि आज भी मंदिर परिसर और आसपास के क्षेत्रों में बबूल के वृक्ष बड़ी संख्या में पाए जाते हैं।
इसी कारण यह स्थान प्राचीन काल से सिद्ध स्थली माना जाता रहा है।
गुरु गोरखनाथ और सिद्धबाबा—चिरंजीवी परंपरा से जुड़ा दिव्य तपोस्थान
यह स्थान वर्तमान में श्री सिद्धबाबा के तपोस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। लोकमान्यता के अनुसार श्री सिद्धबाबा, गुरु गोरखनाथ का ही एक अंश थे। गोरखनाथ को हनुमान, अश्वत्थामा, बलि, व्यास तथा विभीषण की तरह चिरंजीवी माना जाता है, जो समय-समय पर अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं।
सिद्धबली क्षेत्र में उनके प्राकट्य को हनुमत सिद्धि प्राप्ति से जोड़ा जाता है-
मान्यता है कि सिद्धबाबा ने हनुमानजी से विनती की थी कि वे इस स्थान पर सदैव अपने भक्तों के कल्याण हेतु स्थित रहें। इसी वचन के कारण माना जाता है कि बजरंगबली इस स्थान पर सतत उपस्थित रहते हैं।
इन्हीं दो दिव्य शक्तियों —गुरु गोरखनाथ और बजरंगबली—की सिद्ध और बलशाली उपस्थिति के कारण इस स्थान का नाम सिद्धबली पड़ा। यह भी माना जाता है कि सिद्धबाबा ने यहाँ बजरंगबली की एक विशाल पाषाण प्रतिमा का निर्माण करवाया था।
योगियों, साधुओं और फकीरों की तपस्थली –
सिद्धबली क्षेत्र सदियों से साधकों का निवास रहा है। यहाँ पर अनेक महान संतों ने साधना की, जिनमें प्रमुख हैं—
- बाबा सीताराम जी
- बाबा गोपालदास जी
- बाबा नारायण दास जी
- महंत सेवादास जी
- परमपूज्य फलाहारी बाबा ने भी जीवनभर फलाहार लेकर यहीं तपस्या की।
विशेष बात यह है कि एक मुस्लिम फकीर ने भी वर्षों तक इस स्थान को अपनी इबादत का केंद्र बनाया।
मंदिर का प्रारंभिक जीर्णोद्धार भी एक अंग्रेज अधिकारी की सहायता से होने का वर्णन मिलता है।
यही कारण है कि सिद्धबली मंदिर सभी धर्मों के लोगों द्वारा समान श्रद्धा से पूजित है।
सिद्धबली बाबा ,क्षेत्रीय रक्षक देवता
कोटद्वार, बरेली, बुलंदशहर, मेरठ, गाजियाबाद, बिजनौर, हरिद्वार आदि क्षेत्रों के लोग सिद्धबली बाबा को अपने क्षेत्रपाल देवता मानकर पूजते हैं। यहाँ एक प्रमुख मान्यता प्रचलित है: “जो भी भक्त पवित्र भावना से मनौती माँगता है, वह अवश्य पूर्ण होती है।” मनौती पूर्ण होने पर भक्तजन भंडारा कराते हैं, और यही भंडारा परंपरा सिद्धबली मंदिर की खास पहचान बन चुकी है। सन 2022 में ही 2025 तक के लिए भंडारे एडवांस बुक हो गए थे।
भंडारा परंपरा — रविवार के भंडारे का विशेष महत्व यहाँ तीन प्रमुख दिनों में भंडारा किया जाता है—
1. रविवार — सिद्धबाबा का भंडारा (सबसे महत्वपूर्ण) प्रसाद में चढ़ता है: गुड़ भेली घी, गुड़ और आटे से बना विशेष रोट ,नारियल
2. मंगलवार और शनिवार — हनुमानजी का भंडारा प्रसाद के साथ चढ़ाया जाता है: सवा हाथ का लंगोट हनुमानजी का चोला यही भंडारा परंपरा इस स्थान की सिद्धशक्ति और लोकआस्था को और अधिक बल देती है।
मंदिर की पूजा-पद्धति और ‘रोट’ का महत्व –
प्रतिदिन प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में पुजारियों द्वारा पिंडियों का अभिषेक किया जाता है। यह वही पिंडियाँ हैं जिनकी पूजा स्वयं सिद्धबाबा ने अपने आराध्य देव के रूप में की थी। साधुओं द्वारा बनाए गए गुड़-घी-आटे के रोट का पहला भोग चढ़ता है। उसके बाद अन्य भोग लगाए जाते हैं। गर्भगृह में स्थित हनुमानजी की भव्य मूर्ति आभूषणों और अलंकरण के साथ अत्यंत दिव्य दिखाई देती है। पुजारी हनुमानजी की गदा से श्रद्धालुओं की पीठ पर हल्का-सा स्पर्श करते हैं, जिसे दुःख-कष्ट निवारण और सुख-समृद्धि का आशीर्वाद माना जाता है।
सिद्धबली मेला 2025 , पौष संक्रांति का विशाल मेला — सवा मन का रोट
हर वर्ष दिसंबर में पौष संक्रांति पर तीन दिवसीय विशाल मेला लगता है। इसमें— तीन दिन लगातार विशाल भंडारे होते हैं। अंतिम दिन परंपरा अनुसार सवा मन का रोट बनाया जाता है। इस दिन सिद्धबाबा के जागर आदि भी गाए जाते हैं, जो गढ़वाली संस्कृति का एक पवित्र और लोकधर्मी आयाम है। 2025 में सिद्धबली मेला 05 से 07 दिसम्बर 2025 तक मनाया जा रहा है।
नज़दीकी धार्मिक स्थल — श्री दुर्गा देवी मंदिर
कोटद्वार से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर, मोटरमार्ग के नीचे स्थित श्री दुर्गा देवी मंदिर की भी क्षेत्र में विशेष मान्यता है। यह स्थल भी सिद्धबली की तरह ही प्राचीन श्रद्धा और लोकआस्था से जुड़ा हुआ है।
निष्कर्ष –
सिद्धबली मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं बल्कि ऐसी शक्ति-स्थली है जहाँ गुरु गोरखनाथ, सिद्धबाबा और हनुमानजी की दिव्य उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है। यहाँ की परंपराएँ, भंडारे, मेले और लोकमान्यताएँ गढ़वाली संस्कृति को गहराई से दर्शाती हैं।
खोह नदी का पुराणकालीन इतिहास, बबूल पुष्प की सुगंध, योगियों की तपस्या और हजारों भक्तों की आस्था ,इन सभी के सम्मिलित प्रभाव से सिद्धबली मंदिर आज भी उत्तराखंड की सबसे प्रमुख सिद्धस्थलियों में से एक है।
संदर्भ – श्री मंगत राम धस्माना की पुस्तक उत्तराखंड के सिद्धपीठ ,उत्तराखंड ज्ञानकोष पुस्तक ( प्रो DD शर्मा )
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