घंटाकर्ण देवता : बद्रीनाथ के मंदिर के दाहिनी ओर परिक्रमा में बिनाधड़ की एक मूर्ति है जिसे घंटाकर्ण की मूर्ति कहा जाता है। घंटाकर्ण का शाब्दिक अर्थ है ‘वह व्यक्ति जिसके कान घंटे के आकार के हैं अथवा जो अपने कानों में घंटे लटकाये रखता है।’ इसके नाम के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण में विस्तार से बताया गया है कि यह एक पिशाच योनि का प्राणी था जो कि शिव का ऐसा अनन्य भक्त था कि किसी अन्य देवी-देवता का नाम भी नहीं सुनना चाहता था। उसके कानों में ऐसा कोई नाम सुनाई न पड़ सके इसलिए वह अपने दोनों कानों पर बड़े-बड़े घंटे लटकाकर रखता था।
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अनन्य शिवभक्त थे घंटाकर्ण देवता :
उसकी इस अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर जब भगवान् शिव ने उसे दर्शन देकर उससे वर मांगने को कहा तो उसने कहा कि वह इस योनि से मुक्ति चाहता है। इस पर शिव ने उससे कहा कि मुक्ति तो केवल भगवान् विष्णु ही दे सकते हैं अतः यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो उनकी शरण में जाओ।
इसे सुनकर वह विचलित हो उठा। क्योंकि वह तो उनका नाम भी नहीं सुनना चाहता था और उसने विष्णु की शरण में जाने से इन्कार कर दिया। पर भगवान शिव के द्वारा समझाये बुझाए जाने पर वह कृष्णावतार के रूप में द्वारिका में अवतरित भगवान् कृष्ण के पास गया, किन्तु वहां जाने पर ज्ञात हुआ कि वे पुत्र प्राप्ति की कामना से शिवजी की आराधना करने के लिए कैलास गये हैं।
भगवान् कृष्ण ने मुक्ति दिलायी :
इसे सुनकर वह असमंजस में पड़ गया और वह कैलास की ओर चल पड़ा। जब वह बद्रीकाश्रम पहुंचा तो उसने वहां पर श्रीकृष्ण को समाधि में लीन पाया। वह वहीं बैठकर जोर-जोर से नारायण के नाम का जाप करने लगा। उनके उच्च स्वर के नाम स्करण से आकृष्ट होकर जब कृष्ण ने उससे उसका परिचय व नाम स्मरण का कारण पूछा तो उसने उन्हें अपना सारा वृतान्त सुनाया और अनुरोध किया कि उसे मुक्ति प्रदान करें और वहींउनके ध्यान में लीन हो गया। उसके इस श्रद्धा-भक्ति को देखकर भगवान् नारायण ने उसे दर्शन देकर पिचाश योनि से मुक्त होने का वरदान देकर अपने द्वार रक्षक के रूप में अपनी शरण में रख लिया।
माना जाता है कि पिशाच योनि शुरू होने के बाद केदारखण्ड में घंटाकर्ण देवता का पुनर्जन्म हुआ। उनके स्वरूप के विषय में पुराणकार कहता है, वे कमल के सफेद पुष्पों के समान गौरवर्ण चतुर्भुज, महाबाहु है। लाल वस्त्र एवं लाल माला तथा पीला चन्दन धारण करते हैं। गढ़वाल के माणा घाटी के माणा गावं में इनका सिद्धपीठ है। वहां पर इनकी पूजा इष्टदेवता के रूप में होती है। यहाँ इनकी मुख्यतः साल में दो बार पूजा होती है। जब बद्रीनाथ धाम खुलते और बंद होते हैं तब पहले इनकी पूजा की जाती है।
घंटाकर्ण देवता के मंदिर :
घण्टाकर्ण देवता का एक प्रसिद्ध मंदिर टिहरी जनपद के कीर्तिनगर विकासखण्ड में लोस्तू पट्टी के अन्तर्गत ग्राम थपलियालधार में है। लोस्तू बड़ियार में इसे वीर अभिमन्यु के रूप में पूजा जाता है। कुमाऊं मंडल में घंटाकर्ण देवता का अन्यतम पूजा स्थल पिथौरागढ़ जनपद में उसके मुख्यालय के उत्तरी छोर की एक पहाड़ी पर है जहां पर एक प्राकृतिक शिला के रूप में उसका पूजन किया जाता है।
कहा जाता है कि कुछ दशक पूर्व यहां पर इसके समीप एक सरोवर भी था जो कि अब सूख गया है। इधर यहीं पर उसके निमित्त एक देवालय का निर्माण किया जा रहा है। इसे अतिरिक्त पिथौरागढ़ मुख्यालय में पुराने किले के निकट लिंढूड़ा ग्राम में एक मंदिर है जो कि घंटाकर्ण देवता या घंटेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यद्यपि जब वहां पर घंटाकर्ण की पूजा नहीं होती है, पर इसके इस परम्परागत नाम से व्यक्त है कि कभी यहां पर भी उनकी पूजा होती थी। इसे प्रांगण में भगवती का मंदिर है जहां पर चैतोल के अवसर पर पूर्णिमा के दिन चैंसर और जाखनी के देवता अपनी बहिन से आकर भेंट करते हैं।
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