Home मंदिर वृद्ध केदार मंदिर ,कुमाऊं में भगवान् केदारस्वरूप का धार्मिक महत्व एवं इतिहास।

वृद्ध केदार मंदिर ,कुमाऊं में भगवान् केदारस्वरूप का धार्मिक महत्व एवं इतिहास।

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वृद्ध केदार मंदिर (vridh kedar ) या बूढ़ा केदार मंदिर कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा जिले में भिकियासैण से 14 किलोमीटर आगे रामगंगा और विनोद नदी के संगम पर स्थित है। इस मंदिर में भी केदारनाथ धाम के सामान भगवान् शिव के धड़ की पूजा होती है। वृद्ध केदार मंदिर में भगवान शिव के धड़ के रूप में पूजित मूर्ति की गहराई असीमित है तथा धड़ की लम्बाई 6 फ़ीट है।

वृद्ध केदार मंदिर का धार्मिक महत्व –

यहाँ पर विशेष पर्वों और  उत्सवों पर विशेष पूजा और जलभिषेक किया जाता है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा पर की गई विशेष पूजा से खुश होकर भगवान शिव संतान सुख का वरदान देते हैं। कहते हैं पहले शीतकाल में केदारधाम में अत्यधिक हिमपात हो जाने के कारण ,श्रद्धालु भगवान् केदार के दर्शन यहीं प्राप्त करते थे।

वैसे तो इतिहासिक जानकारी के अनुसार इसका निर्माण राजा रुद्रचंद ने करवाया था लेकिन यहाँ के बुर्जुर्गों से प्राप्त जानकारी के अनुसार भगवान् शिव की धाड़नुमा मूर्ति आदिकाल से यहाँ एक किंकरी की झाडी के अंदर थी और आदिकाल से इसकी यहाँ पूजा हो रही है।

वृद्ध केदार मंदिर में सावन के सोमवारों का विशेष महत्व है। सावन के सोमवारों में यहाँ जल और बेलपत्री चढाने से भगवान् शिव मनवांछित वर देते है।

वृद्ध केदार मंदिर

वृद्ध केदार मंदिर ( Vridh kedar temple ) का इतिहास –

मंदिर से प्राप्त एक ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण कुमाऊ के चन्द शासक रुद्रचन्द ने सन् 1568 में कराया था। राजा रुद्रचन्द के द्वारा इसके निर्माण के विषय में जो लोकश्रुति प्रचलित है उसके अनुसार एक बार 1568 ई. में जब वे गढ़वाल के राजा को चौकोट में पराजित करने के बाद आपकी रानी के साथ  गढ़वाल विजय के अभियान से लौट रहे थे तो उन्होंने इसके निकट रामगंगा के तट पर रात्रि पड़ाव डाला। उस रात स्वप्न में भगवान् केदारनाथ के दर्शन हुए और उन्हें भगवान् से पुत्र प्राप्ति का आर्शीवाद मिला था।

इसी उपलक्ष्य में उन्होंने यहां पर इस मंदिर का निर्माण कराया तथा इसमें मां पार्वती की तीन तथा नन्दी की एक पाषाण प्रतिमा बनवाकर प्राणप्रतिष्ठा के साथ उन्हें यहां पर प्रतिष्ठापित किया एवं यहां पर एक पीपल का व एक बेल का वृक्ष भी लगवाया। उनके द्वारा आरोपित पीपल का वृक्ष अभी रामगंगा के तट पर विद्यमान है। ताम्रपत्र के  अनुसार मंदिर की व्ययवस्था मनरालों को, बाहरी व्यवस्था रजबारों  को तथा पूजा का कार्यभार गढ़वाल के डुंगरियाल ब्राह्मणों को सौंप गया था। राजस्व की व्यवस्था के लिए इसके निकटस्थ कई ग्रामों को ‘गूंठ’ में दिया गया था।

इन्हे पढ़े –

वृद्ध जागेश्वर – जहाँ विष्णु रूप में पूजे जाते हैं भगवान् शिव।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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