Thursday, April 10, 2025
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विभाण्डेश्वर महादेव – कुमाऊं में काशी के सामान महत्व वाला तीर्थ।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट नगर को मंदिरों का नगर उत्तर की द्वारिका भी कहा जाता है। इसी मंदिरो के नगर में काशी विश्वनाथ के महत्त्व के बराबर महत्त्व रखने वाला महादेव का मंदिर है , जिसे विभाण्डेश्वर महादेव (vibhandeshwar mahadev mandir )कहा जाता है। विभाण्डेश्वर भगवान शिव का यह मंदिर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट नगर से 8 किमी. दक्षिण में नगारधण (नागार्जुन) पर्वत के तलहटी में स्थित है। यह मंदिर नागार्जुन पर्वत से प्रवाहित होने वाली रमनी, सुरभि एवं नन्दिनी नामक सरिताओं के संगम पर स्थित है।

विभाण्डेश्वर महादेव मंदिर का इतिहास  –

ऐतिहासिक जानकारियों के अनुसार विभाण्डेश्वर के इस शिव मंदिर की स्थापना वि. संवत् 1376 (सन् 1302) में हुई थी।  मंदिर के वर्तमान स्वरूप को कत्यूरी राजाओं ने स्थापित किया था और चंद राजाओ के समय भी यहाँ नियमित पूजा अर्चना चलती रही।  सन् 1943 में महात्मा लक्ष्मीनारायण दास जी ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। ऐतिहासिक मान्यताओं के आधार पर कुमाऊं के चंद राजाओं के सेनापति कल्याण चंद की धर्मपत्नी कलावती  इस पवित्र तीर्थ में सती हुई थी। कलावती उत्तराखंड की पहली और आखिरी सती होने वाली महिला थी। 

विभाण्डेश्वर मंदिर से जुड़ी लोक कथा –

इस मंदिर से एक लोक कथा भी जुड़ी है । कहते हैं प्राचीन काल में एक गाय इस मंदिर वाले क्षेत्र में रोज दूध निकाल देती थी। एक दिन मालिक ने छुपकर देखा तो तब रहस्य से पर्दा उठा। और वो गाय उसी समय संगम पर पत्थर बन गई। इसे अब कपिला गाय और कपिला कुंड के नाम से जानते हैं। भक्त यहां स्नान और दर्शनों का लाभ लेते हैं।

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मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा –

मदिर से एक पौराणिक कहानी जुडी है ,जिसके अनुसार ,विवाहोपरांत भगवान भोलेनाथ अपने ससुर जी हिमालय राज के पास आते हैं। हिमालय राज ने भगवान् भोलेनाथ का यथायोग्य आदर सत्कार किया, भगवान् खूब प्रसन्न हुए। तब हिमालय राज ने उनके आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वे एकांत में सोना चाहते हैं। तब भगवान् शिव ने हिमालय के ऊँचे पर्वतों में अपना सिर रखा। कमर रखी नीलगिरि बागेश्वर में और पैर रखे जागेश्वर में। भगवान ने अपना दायां हाथ नागार्जुन पर्वत में रखा और बाया हाथ भुवनेश्वर में रखा। भगवान् शिव का दाया हाथ वरदायी हाथ नागार्जुन में रखा गया इसलिए विभाण्डेश्वर महादेव (vibhandeshwar mahadev mandir )का विशेष महत्व है।

काशी के बराबर पौराणिक महत्त्व है इस मंदिर का –

महर्षि व्यास कहते है कि काशी में दस हजार साल तक निवास करने का जो फल मिलता है ,वो फल विभाण्डेश्वर मंदिर में मात्र दर्शन से मिल जाता है। मानस खंड में बताया गया है कि विभाण्डेश्वर महादेव मंदिर में की गई भगवान शिव ,की पूजा सर्वोत्तम है। नागार्जुन पर्वत से प्रवाहित होने वाली रमनी, सुरभि एवं नन्दिनी नदियों का यह संगम प्रयाग स्थित त्रिवेणी संगम के समान पावन माना जाता है। सुरभि का उद्गम नागार्जुन पर्वत पर स्थित विष्णु भगवान् के मंदिर के निकट से तथा नन्दिनी का द्रोणाद्रि की तलहटी में स्थित कालीखोली नामक स्थान से हुआ है। इसके सम्बन्ध में स्कन्द पुराण के मानसखण्ड में कहा गया है-

विभाण्डेश्वर महादेव

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द्रोणाद्रिपादसम्भूता नन्दिनीति महानदी ।सुरभि संगमे यत्र ययौ तीर्थैर्विराजिता ।।

तयोमर्ध्य विभाण्डेशं जानीहि मुनिसत्तम । सुरभीनन्दिनीमध्ये विभाण्डेशं महेश्वरम्।। (अ.29)

स्कन्दपुराण के मानसखण्ड में इसे विभाण्डेश कहा गया है और इसके सम्बन्ध में कहा गया है-

तस्यकुक्षौ महादेवो विभाण्डेशेति विश्रुतः ।तस्यसंदर्शनात्पुत्र मनुष्याणां दुरात्मनाम् । पातकानि विलीयन्ते हिमवद् भास्करोदये ।।

अर्थात इसके दर्शनमात्र से ही मनुष्यों के पाप ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे कि सूर्य के उदय होने पर हिम पिघल जाता है।वर्तमान में यहां पर शिवमंदिर के अलावा राममंदिर भी है जहां पर स्थापित अखण्ड रूप से प्रज्ज्वलित ‘सतयुगी धूनी’ का भी विशेष महत्व है। यहां पर चैत्रमाह की अन्तिम तिथि को इस क्षेत्र के लोग ढोल-नगाड़ों के साथ एकत्र होकर पूरी रात झोड़े गाते व छोलिया नृत्य करते व्यतीत करते हैं। प्रातःकाल स्नान पूजा-पाठ करके तथा भगवान् विभाण्डेश्वर का दर्शन करके अपने घरों को लौटते हैं।

यहाँ जिसका अंतिम संस्कार होता है उसे मोक्ष प्राप्ति होती है –

  मूलतः यह इस क्षेत्र की मान्य श्मशान भूमि है। इस श्मशान भूमि में किये गये अन्तिम संस्कार को मोक्षदायक माना गया है। अतः यहां पर आस-पास के दूर-दूर क्षेत्रों से लोग दाहार्थ अपने शवों को लाया करते हैं कहा जाता है कि यदि किसी दिन शव नहीं आता है तो कम्बल का दाह किया जाता है। इस पवित्र स्थल का वर्णन स्कन्दपुराण के मानस खण्ड (अ.29: 12-14) में इस प्रकार दिया गया है-

हिमालयतटे रम्ये, देव गन्धर्व पूजिते ।
तापसानामृषीणां च आश्रमैर्बहुभिर्वृतः ।।
नागार्जुनेतिविख्यातः पर्वतो वर्ण्यते भुवि ।
वामे वै रथवाहिन्या नागराज निषेवितः ।।
तस्य कुक्षौ महादेवो विभाण्डेशेति विश्रुतः।
तस्य संदर्शनादेव मनुष्याणां दुरात्मनाम् ।।
पातकानि विलीयन्ते हिमवद् भास्करोदये।

विभाण्डेश्वर महात्म्य का, नागार्जुन माहात्म्य का तथा इससे सम्बद्ध भगवान् शंकर की कथा का एवं सुरभि और नन्दिनी नदियों के मध्य में स्थित विभाण्डेश्वर में रहने वाले एक मत्स्यभक्षी बगुले के द्वारा सुरभि से मछली मारकर विभाण्डेश्वर के ऊपर रखकर खाने तथा मरने पर शिवलोक को प्राप्त होने की कथा का भी वर्णन किया गया है।

विभाण्डेश्वर महादेव

विभाण्डेश्वर में मनोकामना पूर्ति करते हैं महादेव –

कहते महादेव यहाँ ( vibhandeshwar mahadev mandir)किसी को निराश नहीं करते हैं। इस मंदिर के संबंध में लोगों की आस्था है कि इस मंदिर में सायंकाल को जलाया गया दीपक यदि प्रातःकाल तक अखंड रूप में जलता रहे तो व्यक्ति की वह मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है , जिसके लिए इसे जलाया गया होता है। इस मंदिर के बारे एक मान्यता और है कि ,यदि कोई निसंतान शिवरात्रि के दिन ,” ॐ नमः शिवाय ” का जाप करता हुवा जागरण करता है तो ,भोलेनाथ उसे संतान प्राप्ति का वर देते हैं।

संदर्भ – 

  • प्रो dd शर्मा उत्तराखंड ज्ञानकोष किताब।
  • डॉ मोहन चंद तिवारी जी का आलेख।
  • श्री दुर्गा दत्त जोशी जी का आलेख ( फेसबुक )

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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