उत्तराखंड की लोक संस्कृति के बारे में चर्चा करने से पहले संस्कृति के बारे में जानना अति आवशयक है। संस्कृति के बारे में प्रसिद्ध विद्वानों का क्या मत है यह जानना आवश्यक है। किसी समाज के सामाजिक कर्मकांड, समाज की जीवन शैली, रीती रिवाज, कला, विश्वास अन्धविश्वास वह सबकुछ उस समाज विशेष की संस्कृति का अंग है जिसका पालन उस समाज में रहने वाले मनुष्य करते हैं।
अमेरिकन नृविज्ञानी (मानव उत्पत्ति तथा उसके रूप, आकार आदि का विवेचन करनेवाला शास्त्र) ई.बी. टाइलर के अनुसार, संस्कृति उस सम्पूर्ण सृष्टि का वह निर्देशक तत्व है, जिसमे ज्ञान विज्ञानं, विश्वास-आस्था, कला, नैतिकता, विधि विज्ञानं, रीति -रिवाज तथा अन्य सभी कला-कौशलों एवं मानवीय व्यवहारों का समावेश होता है, जिसे मानव किसी समाज विशेष के सदस्य के रूप में अनुग्रहित करता है।
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लोक संस्कृति की परिभाषा
लोक संस्कृति किसी प्रदेश या क्षेत्र विशेष की मूलभूत संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। लोक संस्कृति के अंतर्गत हम उस क्षेत्र की संस्कृति के सभी रूपों को देख सकते हैं। और उसके घटक तत्वों की आधारभूमि का पता लगा सकते हैं। इसी आधार पर हम उस संस्कृति के बोधक तत्वों – अचार, विचार, विश्वास-अविश्वास, धार्मिक आस्था व अनुष्ठानो, नृत्य, जन्म मृत्यु संस्कारों व उनसे सम्ब्नधित अनुष्ठानों, परम्पराओं, प्रथाओं, जीवन शैली तथा उससे सम्बंधित क्रिया कलापों की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति का आधार
उत्तराखंड की संस्कृति को रोपित करने में किसी एक संस्कृति या समुदाय का नहीं बल्कि अनेक संस्कृतियों और सांस्कृतिक तत्वों का योगदान है।आदिकाल से न जाने कितने मानव वर्गों ने इस सुरम्य हिमालयी क्षेत्र को अपना निवास स्थान बनाया। पौराणिक काल में कभी यक्ष, गन्धर्व, किन्नर जैसी देवजातियों की भूमि माने जाने वाला यह क्षेत्र इतिहास के भिन्न -भिन्न काल में अलग -अलग जातियों के अधिकार क्षेत्र में रहा।
किसी को यहाँ के रमणीय वातावरण ने आकर्षित किया तो किसी को यहाँ की पर्वतीय घाटियों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए उपयुक्त लगी। कोई देवभूमि में शरण की इच्छा से यहाँ आया तो कोई यहाँ अधिकार करने की मंशा से आया। इस प्रकार आदि काल से आज तक उत्तराखंड की इस भूमि में विभिन्न मानव प्रजातियों का आगमन होता रहा। और ये मानव प्रजातियां अपने साथ अपनी भिन्न -भिन्न संस्कृतियों को भी साथ लायी।
आदिकाल में यहाँ शक, हूण, कोल, किरात, मंगोल यवन, खश आदि पहाड़ी जातियों के अलावा मध्यकालीन समय में पक्षिम और दक्षिण से अनेक मानव प्रजातियों का आगमन इस रमणीक भूमि में हुवा। और ये लोग अपने साथ अपनी क्षेत्रीय सामाजिक ,सांस्कृतिक परम्पराओं को भी साथ लाये। और आगंतुकों की सांस्कृतिक तत्व और यहाँ की मूल सांस्कृतिक तत्व परस्पर इस तरह घुल मिल गए कि उन्हें अलग -अलग पहचान करना कठिन हो गया। आज यही सब सांस्कृतिक तत्व मिलकर उत्तराखंड की संस्कृति के रूप में जानी जाती है।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति
उत्तराखंड की लोकसंस्कृति आदिकाल से आज तक उत्तराखंड क्षेत्र में आयातित और उत्तराखंड की मूल संस्कृति का मिश्रण है। उत्तराखंड का अधिकतर भाग पहाड़ी क्षेत्र है, अतः यहाँ की संस्कृति ,वेशभूषा ,परम्पराएं ,खान -पान पहाड़ी अथवा ठंडी जलवायु के अनुरूप है। उत्तराखंड की संस्कृति का वर्णन हम निम्न बिंदुओं के आधार पर कर सकते हैं।
रहन -सहन
उत्तराखंड की जलवायु अधिकतर ठंडी है और अधिकतर भाग पहाड़ी है। अतः यहाँ के मकान पत्थरों से पक्के और छत शंकुवाकर तथा मकान के अंदर का मिटटी का पलस्तर ( लिपाई ) होता है। आजकल अब सीमेंट और ईंटों का प्रयोग भी करने लगे हैं। पहाड़ के लोग बहुत मेहनती होते हैं। इन्होने अपने रहन सहन के लिए पहाड़ों को काटकर सीढ़ीदार खेत बनाये हैं। जिसमे लोग खेती करते हैं। ईधन के लिए जगल से लकड़ी और मवेशियों के लिए घास लाते हैं। हालाँकि वर्तमान में शहरी संस्कृति की परिछाया भी उत्तराखंडी पहाड़ी संस्कृति पर पड़ रही है।
वर्तमान में ईधन के लिए गैस का वैकल्पिक प्रयोग और दूध और राशन के लिए बाजार पर अधिक निर्भर हो रहे हैं। अब पहाड़ों में खेती करना काम हो गई है। अधिकतर पुरुष वर्ग रोजी रोटी के लिए मैदानी भागों में चले जाते हैं। और वहीं से कमाकर अपने बच्चों भरण पोषण करते हैं। और इसके अलावा कई लोग स्थाई रूप से पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं। इसके अलावा उत्तराखंड में वर्तमान में एकल पति पत्नी परम्परा का निर्वहन होता हैं। या यूँ कह सकते हैं वर्तमान में उत्तराखंड के लोगो के रहन सहन में और सामाजिक परम्पराओं में सनातन परम्परा का अधिक प्रभाव मिलता है।विवाह भी कन्यादान परख विवाह को मान्यता है। किन्तु आदिकाल में यहाँ विवाह के अलग -अलग रूप प्रचलित थे।
धर्म एवं विश्वास
धर्म एवं विश्वास के मामले में उत्तराखंड अव्वल नम्बर पर है। पौराणिक काल में देवजातियों का निवास स्थान और ऋषिमुनियों की तपोस्थली रहा उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। इतिहासकारों और पौराणिक गाथाओं के अनुसार पौराणिक काल से आज तक इस हिमालयी क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रभाव रहा है। मध्यकाल में यहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव अधिक बढ़ गया था। माना जाता है कि सातवीं शताब्दी आस पास शंकराचार्य ने इस क्षेत्र में आकर सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की ,जिसके बाद यहाँ सनातन धर्म मजबूत हुवा।
इसके अलावा माना जाता है कि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पौन सम्प्रदाय नामक एक तांत्रिक सम्प्रदाय का प्रभाव भी था। कई विद्वान इसे अलग धर्म मानते हैं ,जबकि कई इसे शैव सम्प्रदाय का एक रूप और सनातन धर्म का एक हिस्सा। क्यूंकि तंत्र मंत्र के अधिष्ठाती देवी देवता भगवान् शिव व् देवी पार्वती का निवास भी यहीं माना जाता है।
पहले यहाँ तांत्रिक क्रियाओं का जबरदस्त बोलबाला था। यहाँ के तांत्रिक साहित्य के बारे में कहा जाता है कि यह जानबूझ कर नष्ट किया गया है। यहाँ पुराने सिद्ध पुरुषों व् न्यायकारी राजाओं को लोकदेवताओं के रूप में पूजा जाता है। इसके अलावा अन्य पूर्वजों की पूजा भी की जाती है। इनको पूजने का तरीका है जागर। जागर गान द्वारा इन्हे किसी मनुष्य का के शरीर में अवतरित कराया जाता है। फिर वे समस्याओं समाधान करते हैं। उत्तराखंड के वासी सनातन धर्म के देवो के अलावा प्रकृति और लोकदेवताओं की पूजा भी करते हैं।
खान -पान व खेती
भारत के अलग अलग राज्यों की तरह उत्तराखंड राज्य के भी विशेष पकवान हैं। जो काफी पौष्टिक होते हैं। उत्तराखंड के पहाड़वासी मोटे अनाज का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके अलावा पहाड़ों की जलवायु ठंडी होने के कारण यहाँ आदिकाल से मांसाहार प्रचलन में हैं। और दलहनों का प्रयोग भी यहाँ बहुत किया जाता है। पहाड़ों में कृषि वर्षा पर आधारित है। इस कारण यहाँ खेती कम होती है। वर्तमान में जंगली जानवरों और मौसम के अनिश्चिता की वजह से अधिकतर लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध भोजन में भट्ट के डुबके ,भट्ट का चौसा ,गहत की दाल ,गहत का फाणु ,मडुवे की रोटी ,शिशुण का साग ,झुंगरू की खीर आदि हैं। उत्तराखंड के भोजन के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें
भाषा –
उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा हिंदी है ,और संस्कृत दूसरी आधिकारिक भाषा है। लेकिन उत्तराखंड की लोकभाषाओं की बात की जाय तो उत्तराखंड प्रमुख लोकभाषाओं में कुमाउनी ,गढ़वाली और जौनसारी भाषाएँ हैं।
वेश भूषा व आभूषण –
उत्तराखंड की संस्कृति में उत्तराखंड निवासियों की अपनी स्थानीय वेशभूषा व् आभूषण हैं। उत्तराखंड की पारम्परिक पुरुष वेशभूषा में – गाती ,मिरजई ,फतुही ,सुरयाल ( चूड़ीदार पैजामा ) ,फाटा आदि थे। आजकल कुर्ता पैजामा और गांधी टोपी मुख्य है। बाकि मौसम के अनुसार सामान्य वेशभूषा का चलन शुरू हो गया है। उत्तराखंड की महिलाओं के पारम्परिक वस्त्रों की बात करें तो इनमे प्रमुख हैं ,आँगड़ी ,घाघरी ,पिछोड़ा आदि हैं। और पारम्परिक आभूषणों में नथुली ,बुलाक ,चर्यो ,गलोबन्द ,कर्णफूल।,सिरफूल ,पौची ,धागुले चन्द्रहार आदि हैं।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति में लोककला –
लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड बहुत समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण, जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएं घर में ऐपण (अल्पना) बनाती हैं। इसके लिए घर,आंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं। उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं। यहां के वाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमाऊं, रणसिंगा, भेरी, हुड़का, मोर्छग, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगोजा हैं। ढोल-दमाऊं तथा बीन-बाजा विशिष्ट वाद्ययन्त्र हैं जिनका प्रयोग आमतौर पर हर आयोजन में किया जाता है। गढ़वाली और कुमाउंनी के अलावा जनजातियों मेंभिन्न-भिन्न तरह के लोक संगीत और वाद्य यंत्र प्रचलित हैं।
यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित हैं। लोक कथाओं में लोक विश्वासों काचित्रण, लोक जीवन के दुःख-दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लोकगायक रात भर ग्रामवासियों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालुसाही, रमैल, जागर आदि प्रचलित थे। अब भी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती हैं। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में हैं। पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
लोकगीत व लोक नृत्य –
उत्तराखंड की संस्कृति में भी अन्य संस्कृतियों की तरह उत्त्सवों व् ख़ुशी के अवसर पर लोकनृत्य कर आनंद मानाने का रिवाज या परम्परा है – यहाँ के प्रमुख लोक नृत्यों में छोलिया, तांदी, झोड़ा चांचरी, जागर, पांडव नृत्य आदि हैं। इसके अलावा यहाँ के निवासी विभिन अवसरों पर अपनी ख़ुशी और दुःख या अपनी भवनाओं को को अपनी स्थानीय भाषा में गीतों से भी जाहिर करते हैं। जिन्हे लोकगीत कहते हैं , उत्तराखंड के लोकगीतों में झोड़ा गायन, ऋतुरैन, जागर गीत, भगनौल गीत, न्योली गीत आदि हैं।
उत्तराखंड के लोकपर्व व मेले –
उत्तराखंड एक समृद्ध संस्कृति संपन्न राज्य है। इस राज्य में मुख्यतः गढ़वाली ,कुमाउनी और जौनसारी संस्कृति के साथ कई प्रकार की संस्कृतियों का समागम है। उत्तराखंड एक प्राकृतिक प्रदेश है। प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज़ से यह राज्य अत्यधिक सुंदर है। इसलिए उत्तराखंड के लोक पर्व, संस्कृति, और रिवाजों में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उत्तराखंड के अत्यधिक त्यौहार प्रकृति की रक्षा और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के लिए समर्पित हैं। सनातन धर्म के सभी त्यौहार उत्तराखंड में मनाए जाते हैं। लेकिन उनकी मनाने की परंपराएं भी प्रकृति को समर्पित होती हैं। उत्तराखंड के प्रमुख त्योहारों निम्न है – घुघुतिया, मरोज, जो संग्रात या वसंत पंचमी, फूलदेई, कुमाउनी होली, बिखोती, घ्वीड़ संक्रांति, हरेला, गीत घी संक्रांति, खतड़ुवा, इगास, मंगसीर बग्वाल आदि हैं। विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
इसके अलावा प्राचीन काल में उत्सवों के अवसर पर मेलों का आयोजन कर अपना मनोरंजन करते थे। प्राचीन काल में उत्तराखंड में मेले पहाड़ी जनजीवन में मनोरंजन और खरीदारी का प्रमुख श्रोत होते थे। उत्तराखंड की स्थानीय भाषा में मेलों को कौथिग या कौतिक भी कहा जाता है। उत्तराखंड के प्रमुख मेले निम्न हैं -देवीधुरा मेला (चम्पावत) ,पूर्णागिरि मेला (चम्पावत), नंदा देवी मेला (अल्मोड़ा), उत्तरायणी मेला (बागेश्वर), गौचर मेला (चमोली), माघ मेला (उत्तरकाशी, विशु मेला (जौनसार बावर) सोमनाथ मेला (माँसी, अल्मोड़ा), स्याल्दे बिखोती मेला (द्वाराहाट ,अल्मोड़ा)
विशेष – मित्रों उपरोक्त लेख में हमने उत्तराखंड की लोक संस्कृति का संक्षेप में परिचय दिया है। इस लेख के लिए हमने प्रो DD शर्मा की उत्तराखंड का लोकजीवन व् लोकसंस्कृति तथा राहुल सांकृतायन की किताब हिमालय का परिचय का सहयोग लिया है।