Home संस्कृति उत्तराखंड की लोककथाएँ ट्वॉल – पहाड़ी आत्मा जो मशाल लेकर पहाड़ों पर अकेले चलती थी

ट्वॉल – पहाड़ी आत्मा जो मशाल लेकर पहाड़ों पर अकेले चलती थी

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ट्वॉल - पहाड़ो में उजाला लेकर चलने वाली आत्माएं
ट्वॉल - पहाड़ी आत्मा

अब पहाड़ भी शहरों की तरह विकसित हो गए हैं। गावों में मोबाइल टावर लग चुके हैं। लोगो का मिलकर बैठ के आणा कथा बन्द हो गई है। बारिश में सफेद भट्ट भून कर खाने का रिवाज बन्द हो गया है। पहाड़ो की कई पहचानों के साथ विलुप्त हो गए पहाड़ों में मशाल लेकर एकाकी चलने वाली आत्माएं जिन्हें ट्वॉल कहते थे।

आइये चलते हैं, उस स्वर्णिम काल मे जब हम इतने विकसित नही थे, लेकिन रिश्तों, संवेदना,और प्यार के क्षेत्र में हम धनाढ्य थे। उस समय शाम को, ईजा और काकी खाना बनाती थी । और मैं अपने दादा दादी की  गोद मे सिर रख कर, आणा – कथा सुनता था। गर्मी में बाहर खोई में चाँदनी रात में हम तीनों बैठे रहते ,तीनो क्या आमा बुबु बैठे रहते थे,और मैं उनकी गोद मे लेटा रहता था। और जाड़ो में मालभीतेर (अंदर वाला कमरा) सगट (अँगीठी) के बगल में।

गर्मियों के दिनों की बात थी, मैं रोज की तरह खोई ( आंगन) में आमा बुबु की गोद मे लेटा था। तब अचानक मैंने सामने की पहाड़ी पर कुछ मशालों को चलते देखा। वो उजाले थोड़ी देर चलने के बाद गायब हो रहे थे। आश्चर्य की बात यह थी, कि जिस स्थान पर वो उजाले घूम रहे थे,वो एक विहड़ स्थान था,जहाँ दिन में गाये चरती थी। कोई आम रास्ता भी नही था, जो कि सोचा जाय कि कोई मुसाफिर होगा।

यह प्रक्रिया बहुत देर तक होने के बाद मैने उत्सुकतावश बुबु से पूछा, “बुबु वो क्या है ? ” कुमाऊनी में दादा जी को बुबु और दादी को आमा बोला जाता है। बुबु ने कहा , पोथा ( पोते )  वो ट्वॉल हैं। मैंने फिर पूछा -“बुबु ये ट्वॉल क्या होते हैं ?

तब बुबु ने बड़े प्यार से सिर पर हाथ रख कर बोला ,”नातिया ये वो आत्माएं होती हैं, जो अपने जीवनकाल में कुवारी मर जाती हैं । अर्थात जिस इंसान की बिना शादी किये ,अल्पायु में मृत्यु हो जाती है, वो मरकर ट्वॉल बनता है। और मृत्यु के बाद भी उसकी आत्मा अकेले भटकती रहती है। या लाइन से एक के पीछे एक रोशनी करते हुए चलते हैं ।

ऐसा लगता था ,बहुत सारी मशाले अपनी धुन में किसी एक दिशा को चल रही हैं। ये तब तक ऊँचे निर्जन पहाड़ो पर उजाला लेकर घूमते रहते हैं, जब तक कि उनको मुक्ति ना मिले। और ये किसी को नुकसान भी नही करते हैं, ना किसी पर चिपटाते हैं। क्योंकि हमने आज तक किसी से नही सुना कि इसको ट्वॉल लगा है। मसाण, ख़बीस छल सबको लगते हैं।

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पता नही उस समय निर्जन पहाड़ों पर , रात को उजाला लेकर चलने वाले कौन थे ? ये एक दिन नही लगभग रोज या दो तीन दिन में एक बार ये प्रक्रिया जरूर होती थी उन दिनों। आमा बुबु ने जो बता दिया उसपे हम संतुष्ट हो जाते थे। मैं आज भी घर जाता हूँ तो रात को उन पहाड़ों पर देखता हूँ,जहां कभी ट्वॉल घुमा करते थे। अब वहां कुछ नहीं घूमते ! वहां जियो और एयरटेल के टावर की लाइट जलती रहती हैं रात भर। लगता है अपनी शक्तियां मोबाइल टावरों में स्थांतरित करके, ट्वॉल भी पहाड़ों से पलायन कर गए। तभी तो मोबेल ने हम सबको ट्वाल बना दिया है।
बिक्रम सिंह भंडारी

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नोट- उपरोक्त लेख में पहाड़ो के जीवन की लोक कथाओं और लोकजीवन के बारे एक छोटा सा लेख लिखने की कोशिश की गई है। इस लेख के द्वारा अंधविश्वास को बढ़ावा देना लेखक का उद्देश्य नही है।
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