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यहां कालकूट विष पीकर महादेव कहलाए नीलकंठ महादेव । सावन में विशेष महत्व है इस मंदिर का।

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नीलकंठ महादेव ऋषिकेश –

नीलकंठ महादेव मंदिर को अष्टसिद्धिएवं वाणी की सिद्धि को प्रदान करने वाला पुण्य क्षेत्र कहा गया है। इस प्रकार यह मंदिर उत्तराखंड का एक विशेष तीर्थ है। यह विशेष तीर्थ जनपद पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर ब्लाक के अंतर्गत उत्तुंग पर्वत मणिकूट में स्वयंभू लिङ्ग के रूप में प्रसिद्ध है। यह मंदिर समुंद्रतल से लगभग 4,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मणिकूट, विष्णुकूट, ब्रह्मकूट पर्वतों से निकलने वाली मधुमती (मणिभद्रा) एवं पंकजा (चंद्रभद्रा) नामक पवित्र धाराएँ यहाँ संगम बनाती हैं। ऋषिकेश से नीलकंठ महादेव मंदिर 32 किलोमीटर की दूरी पर है। हालाँकि  पैदल का छोटा रास्ता 12 किलोमीटर पड़ता है।

यहाँ पर एक वटवृक्ष है जिसके मूल में भगवान श्री नीलकंठ संसार के कल्याण के लिए समाधि लगाकर बैठ गए थे। कालांतर में उसी स्थान पर भगवान शिव स्वयंभू लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए। माँ सती ने सर्वप्रथम उस लिङ्ग का पूजन किया। समय-समय पर अनेकों ऋषि-मुनियों ने इस स्थान पर तप कर अपनी इच्छित सिद्धियों को प्राप्त किया। ऋषि अगस्त्य ऋषि ने भी भगवान शंकर को प्रसन्न कर वाग सिद्धि प्राप्त की थी।

बताते हैं कि कुछ समय बाद वट वृक्ष में से ही एक पीपल का वृक्ष पैदा हुआ और बढ़ते-बढ़ते इतना बड़ा हो गया कि वट वृक्ष उसी में समा गया। फिर एक पंचपर्णी लता ने उसे घेर लिया। इसी वृक्ष के मूल पर श्री नीलकंठ स्वयंभू लिङ्ग रूप में विराजमान हैं और धातु के नाग से आच्छादित हैं। सभामंडप में नंदी ध्यानस्थ मुद्रा में हैं।

यहां कालकूट विष पीकर महादेव कहलाए नीलकंठ महादेव । सावन में विशेष महत्व है इस मंदिर का।

नीलकंठ महादेव पर आधारित पौराणिक कहानी –

कहते हैं देवासुर संग्राम के बाद जब देवो और असुरों के बीच समुंद्रमंथन का निर्णय हुवा। समुंद्र मंथन में कई प्रकार की वस्तुएं और रत्न सिद्धियां निकली उन्हें एक एक करके सभी देव व् दानवों ने धारण किया। जब समुद्रमंथन से हलाहल कालकूट विष निकला तो उसे धारण करने की हिम्मत किसी को नहीं हुई।

कालकूट विष के प्रभाव से समस्त शृष्टि में खतरा उत्पन्न हो गया। सृष्टि की रक्षा के लिए भोलेनाथ ने इस भयकर कालकूट विष को धारण करने का निर्णय लिया। कहते हैं भगवान भोलेनाथ ने इस स्थान पर विष पान किया और माँ पार्वती ने उस विष को भोलेनाथ के गले से नीचे नहीं उतरने दिया विष को उनके गले में ही रोक लिया और विष के प्रभाव से उनका गला नीला पड़ गया।

और तबसे भोलानाथ कहलाये नीलकंठ महादेव। बताते हैं कि भगवान् शिव ने विषपान करने के बाद वट वृक्ष के नीचे जनकल्याण के लिए तपस्या की और बाद में उसी स्थान पर भगवान् शिव स्वयंभू लिंग के रूप में उत्पन्न हुए। जिसकी सर्वप्रथम पूजा माता सती ने की थी।

 नीलकंठ महादेव का पौराणिक महत्त्व –

भगवान नीलकंठ महादेव के धार्मिक महत्त्व के बारे में कहा जाता है कि सिद्धि प्राप्त करने के लिए यह पुण्य क्षेत्र है। इसके बारे कहा जाता है कि यहाँ महर्षि अगस्त्य ने वाग सिद्धि की प्राप्ति की थी। इसके अलावा कहा जाता है कि सावन में यहाँ कावड़ लाकर जलाभिषेक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब कालकूट विष धारण करने के बाद भगवान शिव विष के प्रभाव से जलने लगे ,तब समस्त देवताओं ने भगवान् शिव के ऊपर जल अर्पण किया और तब भोलेनाथ की जलन कम हुई। उस दिन से भोलेनाथ को जल चढाने की परम्परा शुरू हुई।

सावन में भोलेनाथ के इस मंदिर में कावड़ चढ़ाने का इसलिए भी विशेष महत्व है क्योंकि भगवान के नीलकंठ रूप  से उन्हें जल चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई थी। और सावन भगवान शिव का प्रिय महीना होता है।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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