उत्तराखंड अपनी विशेष संस्कृति, मेलों और त्योहारों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। उत्तराखंड के विशेष मेला त्योहारों में जून अंतिम सप्ताह में होने वाला मौण मेला (Maun mela Uttarakhand) काफी प्रसिद्ध है। मौण मेला मछली पकड़ने से सम्बंधित लोकोत्सव है जो उत्तराखंड के रवाईं, जौनपुर इलाकों में मनाया जाता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार इसकी तिथि जून के 21 से 30 के बीच मानी जाती है। इसकी तिथि का निर्णय स्थानीय आयोजकों द्वारा किया जाता है।
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मौण क्या है?
मौण तिमूर के छिलको को कूटकर तैयार किया गया वह पदार्थ है, जिसके मादक प्रभाव से मछलियां बिहोश हो कर पानी के ऊपर तैरने लगती हैं, जिन्हे आसानी से पकड़ा जा सकता है। जौनपुर में इसका आयोजन मसूरी यमुनोत्री रोड पर अगलाड़ नदी के पुल के पास बंदरकोट के पास पाटलुटाल में किया जाता है। इसे मैणकोट भी कहा जाता है। मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) इस क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकोत्सव है। इस मेले में जौनपुर और रवाई क्षेत्र के दूर -दूर के लोग सम्मिलित होते हैं। इसके लिए लगभग एक माह पूर्व से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मौण तैयार करने के लिए प्रत्येक पट्टी ,की बारी निश्चित हो जाती है। जिस साल जिस पट्टी की बारी होती है ,उस वर्ष उस पट्टी के गावों की जिम्मेदारी होती है तिमुर से मौण बनाने की। मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) में पानी के तालाब या पानी एकत्रित वाली जगह में मौण डाला जाता है ,मौण के प्रभाव से मछलियां बिहोश हो कर पानी के ऊपर आ जाती है। फिर लोग उन्हें आसानी से पकड़ लेते हैं।
मौण मेले का इतिहास (HISTORY OF MAUN MELA UTTARAKHAND) –
लोकगीतों से प्राप्त जानकारी और ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार ,मौण मेला टिहरी रियासत के महाराजा नरेंद्र शाह ने अगलाड़ नदी में पहुंचकर शुरू किया था। साल 1844 में आपसी मतभेदों की वजह से यह मेला बंद हो गया। सन 1949 में इसे फिर शुरू किया गया। राजशाही के जमाने में अगलाड़ नदी का मौण उत्सव राजमौण उत्सव के रूप में मनाया जाता था। प्रो DD शर्मा अपनी किताब उत्तराखंड ज्ञानकोष में बताते हैं कि ,लोकगीतों के अनुसार पुराने समय में इसमें टिहरी का राजा भी सम्मिलित होता था। यह लोकोत्सव मानाने के लिए राजा को आवेदन पत्र भेजा जाता था। उस आवेदन पर उसका लिखित आदेश मिलने पर पट्टियों की पंचायत बैठती थी। उसके बाद इसकी घोषणा होती थी। पहले इसकी तिथि की घोषणा राजा करता था।का पहले मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) के अवसर पर ओलाड़ खेलने की परम्परा भी थी। इसमें भाग लेने वाले लोग अपने हाथों में मछली ,मछली मारने का जाल ,कुनिडयाला ,फटियाला और माछोनी लेकर सामुहिक रूप से ढोल बजाते थे और बाजूबंद ,जंगू आदि गीतों को गाते हुए और सर में मौण का थैला भी लाते थे। और पट्टी के लोगों का इंतजार करते थे। टिमरू का चुर्ण लाने के लिए प्रति वर्ष हर पट्टी वाले की बारी लगती है।
कैसे मनाते हैं मौण मेला (Maun mela Uttarakhand ) –
सबसे पहले सयाणा नदी की पूजा करता है। फिर एक दूसरे पर मौण मलते हैं फिर बाकि मौन नदी में डाल कर ,मछली पकड़ने नदी में कूद जाते है। चूर्ण के कारण बिहोश हुई मछलियों को एकट्ठा करना शुरू कर देते है। प्राचीन समय में टिहरी के राजा भी वहां उपस्थित रहते थे। सभी लोग अपनी -अपनी इकट्ठा की गई मछलियों में से एक -एक मछली राजा को देते थे ,उसके बाद गाजे बाजे के साथ ख़ुशी -ख़ुशी अपने घर को जाते थे। मछली पकड़ने का यह सिलसिला लगभग 10 से 12 किलोमीटर तक चलता है। शाम होते ही सारे मौणाई ( मछली पकड़ने वाले )अपने घर को जाते हैं। शाम को सबसे बड़ी मछली अपने इष्ट देवता को चढाई जाती है। तत्पश्यात रात में अपने इष्टमित्रों के साथ मछली भात की दावत की जाती है। इसे भी पढ़े: मुक्ति कोठरी – उत्तराखंड में दुनिया की सबसे डरावनी जगह का रहस्य
मौण मेले (Maun mela Uttarakhand ) से कुछ दिन पहले स्थानीय लोग अपने लोकवाद्यों के साथ ,”दुरा भइया डोलिये” का गीत गाते हुए इस मेले से सम्बंधित गावों में जाकर इसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण देते हैं। मौण मेले के दिन दुरा भइया डोलिये गीत गाते हुए ,सभी लोग सीटियां बजाते हुए ,लेचिया लेचिया कहते हुए नदी की ओर जाते हैं। पुराने लोगों का कहना है कि ,अब पहले जैसी मस्ती,उत्साह और जन सैलाब नहीं रहा।
मौण उत्सव के रूप –
पहले मौण उत्सव तीन प्रकार से मनाया जाता था। 1 – माछी मौण ,2 – जातरा मौण ,3 – ओदी मौण। इसमें से माछी मौण और जातरा मौण अभी भी मनाया जाता है। लेकिन ओदी मौण विलुप्तप्राय हो गया है। ओदी मौण का संबंध सामंतों और जमीदारों की शक्ति प्रदर्शन के साथ हुवा करता था।
कुमाऊं का मौण मेला “डहौ उठाना”
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी ठीक इसी प्रकार का उत्सव बिखोती (विषुवत संक्रांति) के अवसर पर मनाया जाता है। जिसे डहौ उठाना कहते हैं। यह उत्सव पक्षिम रामगंगा के तटवर्ती क्षेत्रों मासी भिकियासैण में मनाया जाता है। मासी में इसका आरम्भ पौर्णमासी से सात दिन पहले होता है। और समापन पौर्णमासी के दिन होता है।