महासू देवता का अर्थ है ,महान देवता । यह हिमांचल प्रदेश और उससे जुड़े उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र के लोक देवता हैं। इनका मंदिर गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में जिला मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर हनोल में स्थित है। उत्तराखंड में महासू देवता के प्रभाव सिर्फ जौनसार -बावर तक सिमित है। इनके नाम के बारे में कहा जाता है कि महासू देवता नाम चार भाइयों और उनकी माता देवलाड़ी के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ये चार भाई इस प्रकार है –
- बासक महासू
- पिबासक महासू
- बौठा महासू
- चालदा महासू
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जौनसार के मुख्य देव हैं महासू देवता –
जैसा कि उपरोक्त में बताया कि महासू नाम से चार भाई और उनकी माता देवलाड़ी को पूजा जाता है। इनके पुरे जौनसार में क्षेत्र बटें हुए हैं। बौठा महासू को हनोल का क्षेत्र मिला है ,लेकिन उनका प्रभाव पुरे जौनसार में है। और बसिक महासू को टौंस नदी के बायीं ओर का बावर व् देवसार क्षेत्र। ऐसे ही पिबासक महासू को टौंस के दक्षिणी क्षेत्र मिला है। और चालदा महाराज को कोई क्षेत्र नहीं मिला वे हमेशा प्रवास में रहते हैं। ये समय -समय पर जौनसार और हिमांचल के क्षेत्रों में यात्रा पर रहते हैं।
महासू देवता मंदिर हनोल ( mahasu devta mandir ) का विशेष महत्व है –
अपने प्रवास परिवर्तन पर ये एक रात हनोल के मंदिर में विश्राम करते हैं। उसके दूसरे दिन अगले क्षेत्र की यात्रा पर जाते हैं। पुरे जौनसार में हनोल के मंदिर का विशेष महत्त्व है। हनोल मंदिर चारो महासुओं और उनकी माँ देवलाड़ी का मंदिर है। साथ ही साथ चार महासू भाइयों के चार बीरों की मूर्तियां भी यहाँ स्थापित है। चारों महासू देवताओं के चार वीरों के नाम इस प्रकार हैं –
- बैठा महासू का कैलूवीर।
- बसिक महासू का कपला वीर।
- पबासी महासू का कैलथवीर।
- चालदा महासू का शेडकुड़िया वीर।
महासू के इस मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया -चतुर्थी तिथियों को महासू देवता का वार्षिक महोत्सव जागड़ा पर्व मनाया जाता है। जागड़ा यानी रात्रि जागरण पर महासू देवता की विशेष पूजा अर्चना होती है। फिर अगले दिन देवता की डोली स्नान के लिए जाती है। हनोल के मंदिर में नित्य तीन बार प्रातः, मध्याह्न एवं सायं पूजा होती है। प्रत्येक पूजा अर्चना के उपरान्त पांडवों से सम्बद्ध जागड़े गाये जाते हैं और उन्हें नचाया जाता है।
इन जागड़ों में कुन्ती की विशेष महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। पूजा प्रातःकाल बाजगी के द्वारा’परभात’ लगाये जाने के बाद की जाती है। दिन भर में पूजा दो बार भीतर और तीन बार बाहर की जाती है। मुख्य पूजा (सन्दोल) सायंकाल को की जाती है। इसकी पूजा की विशेषता यह है कि इसे उल्टा मुंह करके उल्टे हाथ से सम्पन्न किया जाता है ।
चांदी के पट्ट पर उत्कीर्ण चारों भाई ‘महासू’ तथा माता देवलाड़ी की ये मूर्तियां गर्भगृह में, जिसे ‘कालीपोइड’ कहा जाता है, रखी हुई हैं। पुजारी के अतिरिक्त किसी और को वहां जाने की अनुमति नहीं होती है। इन चारों भाईयों के साथ इनके चारों वीरों-शेरकुड़िया, रंगवीर, कयलूवीर (कैलू वीर) तथा लाकुड़ावीर/कपिलावीर की भी पूजा की जाती है। मंदिर के भीतर गुप्प अंधकार रहता है। पुजारी चीड़/देवदारु की फट्टियों की मशाल जलाकर देवता के दर्शन कराते हैं।
महासू देवता की हनोल आने की कहानी –
चार भाई महासू को कश्मीर का राजकुमार बताया ड़ाल जाता है। हनोल क्षेत्र के लोगो को न्याय दिलाने वे कश्मीर से यहाँ आये थे। महासू देवता का सम्बन्ध महाशिव से भी जोड़ा जाता है। और महासू देवता को नागदेवता के रूप में भी पूजा जाता है। पौराणिक लोकथाओं के अनुसार कहा जाता है कि जब प्रथमपूज्य देव की प्रतिस्पर्धा में शिवपुत्र कार्तिकेय हार जाते हैं। तब वे रुष्ट होकर कहते हैं कि ,माँ पार्वती गणेश को अधिक स्नेह करती है ,इसलिए उसने गणेश को माता -पिता की परिक्रमा वाली युक्ति बताई।
तब भगवान् शिव कहते हैं ,तुम्हारा यह शरीर भी पारवती की देन है। तब गुस्से में आकर कार्तिकेय अपने शरीर के चार टुकड़े करके तालाब में डाल देते हैं ,जिन्हे उलल नाग ,बिललनाग ,वासुकिनाग और माडुवानाग खा लेते हैं। फिर इन नागों से क्रमशः चार भाई महासू राजकुमार प्रकट होते हैं। इसलिए इन्हे नागदेवता के रूप में भी पूजा जाता है।
महासू देवता के बारे में एक जनश्रुति इस प्रकार है कि ये चारों कश्मीर के नागवंशी राजा या लोकदेवता विमल देव और देवलाड़ी के पुत्र थे इन चार भाइयों के साथ अपने चार वीर भी थे ,जिनका विस्तार उपरोक्त में दिया गया है। महासू भाइयों के हनोल या जौनसार आने के बारे कहा जाता है कि ,टौंस और यमुना के संगम क्षेत्र में किरमिर नामक नरभक्षी राक्षस ने आतंक फैलाया था। उसके आतंक से परेशान होकर मेदरथ क्षेत्र ( जौनसार – बावर ) का हुणाभट्ट नामक व्यक्ति स्वप्न में प्राप्त निर्देशानुसार ,कश्मीर जाकर महासू भाइयों को आमंत्रित किया।
तब महासू भाइयों ने हुणाभट्ट से कहा कि ,तुम अपने क्षेत्र में सात दिन बाद हमारे नाम से खेत में हल से पांच लकीरें खींचना। मगर हुणाभट्ट को सब्र न हुवा उसने छठे दिन ही हल चला दिया , जिसकी वजह से बासिक महासू के आँख में ,पबासिक महासू के कान में और बौठा महासू के घुटने में चोट लग गई। और चालदा महासू सही सलामत निकले। इन देवताओं को लगी चोट इनकी मूर्तियों पर भी दृष्टिगत होती है। चारों महासुओं ने अपने वीरों और सेना को भेज कर किरमिर राक्षस सहित क्षेत्र के सभी आक्रांताओं का वध करवा दिया। और स्वयं माँ देवलाड़ी के साथ यहीं रहने लगे।
इतिहासकार भी मानते कि यह मंदिर हूणों की स्थापत्य कला से भी मिलता जुलता है। और हुनाभट्ट कोई और नहीं उस क्षेत्र के हुण निवासी था ,जो आक्रांतों से रक्षा के लिए कश्मीर गिलगित के राजकुमारों से मदद मांगते हैं। कश्मीर से आकर राजकुमार अपने वीर सेनापतियों या सामंतों ,वीरों के साथ आकर यहाँ के निवासियों की मदद करते हैं और कालांतर में यहीं देवरूप में पूजे जाते हैं। वैसे भी पूरे उत्तराखंड में पुराने सिद्ध पुरुषों को और राजाओं को लोक देवता के रूप में पूजने की परम्परा पुरानी है।
क्या महासू देवता मंदिर में राष्ट्रपति भवन से नमक आता है ?
कहते हैं महासू देवता के मंदिर में प्रतिवर्ष राष्ट्रपति भवन से नमक और धूपबत्ती आती है। इसके बारें जनश्रुतियों और लोककथाओं में यह बताया जाता है कि महासू देवता का कमंडलनुमा वर्त्तन टौंस नदी में गिर जाता है। वह बहते बहते दिल्ली राजा के पास पहुंच गई। जिसे वहां खाना बनाने वाले कारीगरों ने नमक का पात्र बना दिया। जब राजा के जीवन सबकुछ गलत घटित होने लगा तो ज्योतिषों ने मासु देवता का रुष्ट होना बताया और मंदिर में नमक दान करने की बात बताई।
तब राजा ने मासु देवता के मंदिर को नमक भेजना शुरू किया। जिसके बारे में बताया जाता है कि वर्तमान में यह परम्परा राष्ट्रपति भवन निभाता है। राष्ट्रपति भवन प्रतिवर्ष नमक और अगरबत्ती आती है। मगर स्थानीय लोगो से पता किया तो यह पता चला कि जो नमक और अगरबत्ती आती है बेशक उसमे राष्ट्रपति भवन लिखा रहता है। लेकिन वो प्रॉपर और ऑफिशली राष्ट्रपति भवन से नहीं आता है।
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