Tuesday, May 27, 2025
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दुतिया त्यार या बगवाई त्यार कुमाऊं में भाई दूज के मनाया जाने वाला लोकपर्व ,और बगवाई कौतिक का इतिहास।

दीपावली के तीसरे दिन जहाँ पूरा देश भाई दूज का त्यौहार मना रहा होता है ,वहीँ उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के निवासी दुतिया त्यार या दुति त्यार मनाते हैं। हालाँकि यह पर्व यमद्वितीया पर्व का ही एक लोक रूप है। इसको पारम्परिक रूप में मनाया जाता है। पहाड़ो में बरसात के बाद बग्वाल खेलने की परंपरा पुरानी है ,जिसे वर्तमान में त्योहारों और लोकपर्वों के साथ जोड़ दिया है।

अब श्रावण पूर्णिमा की बग्वालऔर गोधन पूजा के दिन पाटिया की बग्वाल के अलावा सारी बग्वालें बंद हो गई हैं , कहीं कहीं केवल सांकेतिक रूप से मनाई जाती है। दीपावली को कुमाऊं में बग्वाली त्यौहार कहा जाता है ,और यम द्वितीय को दुतिया त्यार के रूप में यम द्वितीया का लोक रूप मनाया जाता है।

दुतिया त्यार या बगवाई त्यार –

दुतिया त्यार को मनाने के लिए तैयारी दशहरे से शुरू हो जाती है। दशहरे के दिन धान भिगोने डाल दिए जाते हैं। जिन्हे कूट कर इनका  गोधन पूजा ( गोवर्धन पूजा ) के दिन च्यूड़े बनाये जाते हैं। इन्हे बनाने के लिए सर्वप्रथम एक लोहे की कढ़ाई में इनको चटकने तक गर्म किया जाता है। जैसे ही चटकने लगते हैं तो ओखली में कूट कर चपटा कर लेते हैं। फिर इन्हे साफ करके चढाने योग्य और खाने योग्य कर लिया जाता है।

दूसरे दिन यानी याम द्वितीय के दिन घर की गृहणी सुबह उठकर , नाह धोकर घर की सफाई करती है। पूरी पकवान बनाती है ,तदुपरांत घर में पुरोहित आकर चिवड़े की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। फिर प्रतिष्ठित चिवड़ा कुलदेवताओं को चढ़ाया जाता है। उसके उपरांत घर के बड़े बुजुर्ग अपने से छोटे सदस्यों को चिवड़ा चढ़ाकर , दीर्घायु और सुखी रहने का आशीष देते हैं। और भाई अपनी बहिनो के घर चिवड़े चढाने के लिए जाते हैं। इसके बाद पारम्परिक पकवान बनाकर खुशियां मनाते हैं। अपने दूर संबंधियों को चिवड़े दुतिया त्यौहार के प्रसाद के रूप में भेजे जाते हैं।

दुतिया त्यौहार या बगवाई त्यार के दिन चिवड़े चढ़ाकर लोग बग्वाली मेला देखने जाते हैं। मुख्य बग्वाली मेला उत्तराखंड अल्मोड़ा के बग्वालीपोखर नामक कसबे में होता है। इसके अतिरिक्त कई और जगहों में ये मेला लगता है।

दुतिया त्यार या बगवाई त्यार कुमाऊं में भाई दूज के मनाया जाने वाला लोकपर्व ,और बगवाई कौतिक का इतिहास।

बग्वाली मेला या बगवाई कौतिक का इतिहास –

दुतिया त्यार के दिन अल्मोड़ा के बग्वालीपोखर नामक कस्बे में बग्वाली का मेला लगता है। कहते हैं पहले ज़माने के राजा ,सामंत बारिश के बाद खास दिनों में पत्थर युद्ध का अभ्यास करते थे ,जिसे बग्वाल कहते थे। कुमाऊं के बग्वालीपोखर में एक तालाब के किनारे ऐसी ही एक बग्वाल खेली जाती थी। बग्वालीपोखर का नाम ही इस बग्वाल के नाम पर पढ़ा है।

बग्वालीपोखर मतलब तालाब के किनारे की बग्वाल ! पहले यहाँ एक तालाब था ,जिसे किनारे खूनी बग्वाल खेली जाती थी। अत्यधिक खून खराबा होने के कारण बाद में बुजुर्गो ने आपसी मशवरे के बाद खुनी बग्वाल बंद करके उसकी जगह तालाब में पत्थर मारने की रस्म रखी गई। कालान्तर में वह तालाब पत्थरों से भर गया ,और उसकी जगह मैदान बन गया। अब उसी मैदान पर ओढ़ा भेट्ने की रस्म निभाकर मेले की परम्परा पूरी कर दी जाती है।

बग्वाली मेले के बारे में कहा जाता है की इस मेले की शुरुवात कत्यूर काल में हुई है। यहाँ दो दिवसीय मेले में बाजार सजते है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भरमार होती है। दूर दूर के व्यापारी अपने सामान के साथ यहाँ बिक्री करने आते हैं

वर्तमान में दुतिया त्यार पर लोगो ने चिवड़े बाजार से लाने शुरू कर दिए हैं। क्यूकि वर्तमान में पहाड़ों मे पारम्परिक तरीके से कम ही लोग चिवड़े बनाते हैं। इसका मुख्य कारण है अब पहाड़ों में फसल का उत्पादन कम हो गया है।

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बग्वालीपोखर कुमाऊं का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व का प्रसिद्ध क़स्बा जहाँ कौरवों ने खेली थी चौसर।

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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