Home संस्कृति कुमाऊनी महिलाओं की सांस्कृतिक पहचान “नाखक टुकम बे लंबा पिठ्या”कुमाऊनी रोली टीका!

कुमाऊनी महिलाओं की सांस्कृतिक पहचान “नाखक टुकम बे लंबा पिठ्या”कुमाऊनी रोली टीका!

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बचपन में हमारी अम्मा (दादी जी) जाड़ों में हल्दी ,सुहागा,आदि के मिश्रण से घर का पिठ्या रोली तिलक बनाती थी। फिर घर के शुभ कार्यों में वहीं तिलक प्रयोग में लाया जाता था। ब्राह्मण ज्यू आते थे, पाठ मंत्रोच्चार के साथ सभी को तिलक करते थे। और घर कि महिलाओं को नाख से माथे तक एक लंबा पिठ्या रोली तिलक लगाते थे।

पहले हमारी समझ मे नही आता कि इनको, इतना लंबा तिलक क्यों ?बाद में जब रोजी रोटी के लिए परदेश गए, तब देखा,वहां की महिलाएं तो छोटा सा तिलक लगा रही। तब मेरी  समझ में आया कि कुमाउनी महिलायें ही लंबा तिलक ,जिसको नाखः टुकम बे पिठ्या बोलते हैं, वो हमारी सांस्कृतिक पहचान है। जैसे रंगीन  कुमाऊनी पिछोड़ा हमारी यूनिक पहचान हैं , वैसे ही हमारी मातृशक्ति का लंबा तिलक हमारी शान है।

मगर हमारी यह अब हमारी यह सांस्कृतिक पहचान विलुप्ति की ओर अग्रसर है। आधुनिक पीढ़ी की माताएं बहिने,अपने घर मे नही परदेस में रहती हैं, तो वहाँ के परिवेश के अनुसार उनको हमारा पारम्परिक तिलक ,लंबा पिठ्या लगाने में शर्म आती है।

और जो बहिने गांव में हैं वो भी लंबा पिठ्या नही लगाती। कारण एक ही है, आधुनिक चका चौध की अधूरी समझ।

“आजकल तो यही चलता है, “जा चेला दुकानम बैटी 5 रुपे टिका पूड़ी ले आ, और प्लेट में घोई ,शीश मे देखि गोल टिकक लगे ली”

मगर यह परम्परा विलुप्ति की कगार पर जरूर है,मगर कुछ क्षेत्रों की माताएं बहिने, इसे अभी भी जीवंत किये हुए है। कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में ,विवाह आदि शुभ अवसरों पर ,महिलाएं नाखम बे पिठ्या लगाई हुई मिल जाती हैं।

2 महीने पहले कि बात है, जब मगशीष के व्याह लग्न चल रहे थे। एक भूली है, मेरी मित्रता सूची में जो बचपन से दिल्ली रहती है। उसकी शादी भी थी ,उसकी शादी की दुल्हन के रूप में फ़ोटो देख कर मैं चौक गया! पहाड़ी पिछोड़े में,सिर पर राधा कृष्ण वाला मुकुट, नाख में टिहरी की चन्द्रहार नाथ, और सबसे विशेष नाखः टुकम बे पिठ्या! सच्ची उजई जयूनी जैसी लग रही थी भूली हमारी।

कहने का मतलब ये है कि कई लोग बाहर रहते हुए भी अपनी सांस्कृतिक जड़ो से जुड़े हैं। और इन्ही लोगो के कारण ये परम्पराएं बची हुई हैं। ये जो हमारा कुमाउनी परिधान है, यह एक यूनिक परिधान है, इसके साथ नाखः टुकम पे पिठ्या,का कॉम्बिनेशन है, इसमे हमारी बहिनो का सौंदर्य अलग ही तेजपूर्ण हो जाता है।

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पिठ्या
फ़ोटो साभार -प्रिंटसेट

कुमाऊँ की महिलाएं क्यों लगाती हैं, लंबा पिठ्या रोली तिलक –

अब आप को तो पता ही होगा, पहले की पीढ़ी इस परंपरा को निभाती आई है,लेकिन आधुनिक पीढ़ी की रुचि केवल कुमाउनी क्लचर को, सोशल मीडिया में लाइक पाने का जरिया बना रही हैं। वास्तविक जीवन मे इसका प्रयोग कम ही रह गया है।

किशोरावस्था मे मैंने पंडित ज्यूँ से उत्सुकतावश पूछ ही लिया, पाने ज्यूँ आमा और ईजा ,काखी को नाखम बे पिठ्या क्यों लगाते हो ? तो पंडित ज्यूँ ने मुझे निम्न बिन्दुओं के माध्यम से इसका महत्व समझाया।

नाखम बे टीका लगाने से महिला के सुहाग स्वस्थ ,तंदुरुस्त ,ओजपूर्ण एवं दिर्घायु होता है। और लंबा पिठ्या रोली तिलक केवल सुहागिन महिलाएं ही लगाती हैं। नाखे टुकम बे टीका लगाने वाली महिलाएं, सकारत्मक ऊर्जा से परिपूर्ण रहती हैं। आस पास सभी पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं। पारम्परिक टीका लगाने वाली, सुन्दर लगती है।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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