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कलबिष्ट देवता की कहानी
चलिए दोस्तो आज आपको बताते हैं, कलबिष्ट देवता की कहानी लगभग 200 साल पुरानी बात है कि केशव कोट्यूडी का बेटा कल्लू कोट्यूडी नामक एक राजपूत ,कोत्युडकोट में रहता था। उसकी माता का नाम दुर्पता था। उसके नाना का नाम रामाहरड़ था। कल्लू बड़ा वीर एवं रंगीला मिजाज का युवक था। वह किसान था। और बिनसर के जंगलों में ग्वाले का काम करता था। लोक कथाओं में उसका नाम कलबिष्ट, कलुवा या कल्याण बिष्ट और कलविष्ट नाम से प्रसिद्ध है। बताते हैं उसके साथ हमेशा निम्नलिखित सामान रहता था –
- मुरली
- बाँसुरी
- मोचंग
- पखाई
- रमटा
- घुंघराली दातुली
- रतना कामली
- झपूवा कुकुर
- लखमा बिराई
- खनुवा लाखा
- रुमेली, झुमैली गाई
- भागुवा भैसा
- नागुली, भागुली भैंसी
- सुनहरी दातुलो
- 12 भैंसी, और लगभग 12 भैंसे ( जतीये )
कलबिष्ट को मुरली बजाने का बहुत शौक था। बिनसर में सिद्ध गोपाली के घर दूध पहुचाते थे।और श्रीकृष्ण पांडेजी के घर उसका उठना, बैठना था। मतलब मित्रता थी। श्रीकृष्ण पांडे की नौलखिया पांडे से दुश्मनी थी। नौलखिया पांडे जी , भाभर देश से ‘भराड़ी’ नाम के शैतान को ,श्रीकृष्ण पांडे जी के खानदान को नष्ट करने लाये थे। कलविष्ट एक वीर पुरुष था, वो भूत, और शैतानों को भगा देता था। उसने भराड़ी शैतान को, त्यूनिगाड मे पथर के नीचे दबा दिया । भराड़ी ने कलविष्ट से माफी मांगी, तब उसे छोड़ा। नौलखिया पांडे अपनी चाल सफल न होने पर अति क्रोधित हुवा। उसने एक चाल चली, जिससे श्रीकृष्ण पांडे और कलविष्ट एक दूसरे के आमने सामने आ जाएं। उसने झूठी खबर उड़ा दी कि, कलविष्ट और श्रीकृष्ण पांडे की पत्नी के आपस मे संबंध हैं।
श्रीकृष्ण पांडे दिल से जानता था, कि उसकी पत्नी निर्दोष है। मगर अपवाद दूर करने के लिए उसने कलविष्ट की हत्या का विचार किया। श्रीकृष्ण पांडे राजा का पुरोहित था, उसने राजा से कलविष्ट की शिकायत कर दी। राजा ने कलविष्ट को मरवाने के लिए ,चारो ओर पत्र और पान के बीड़े भेजे,देखे कौन बीड़ा उठाता है।
केवल जय सिंह टम्टा ने बीड़ा उठाया। राजा ने कलबिष्ट को सादर दरबार मे बुलाया,उस दिन श्राद्ध था उसे दही दूध लेकर आने को कहा गया।
कलबिष्ट बडे बडे डोको में दही दूध भर के राजा के दरबार मे ले गया, राजा आश्चर्य चकित हो गए। राजा ने देखा, कलविष्ट के सिर में त्रिशूल और पैर में कमल (पद्म) का निशान बना था।राजा को वह दिव्य वीर और सद्चरित्र पुरुष लगा। उसने राजा को एक से बढ़कर एक करामते दिखाई, राजा कलविष्ट को देख कर चकित रह गए। राजा ने एक दिन जयसिंह टम्टा और कलविष्ट की कुश्ती कराई। कुश्ती में हारने वाले कि नाक काटने की शर्त थी। राजा रानी और दरबारियों के सामने कुश्ती शुरू हुई। कलबिष्ट ने जय सिंह टम्टा को हराकर, उसकी नाक काट ली। दरबार मे कलविष्ट की धाक जम गई। और कलविष्ट से बहुत लोग जलने लगे।
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पालिपछाऊ के रहने वाले दयाराम पछाई ने कहा कि ,कलविष्ट तुम अपनी भैंसे लेकर भाभर में जाये तो अच्छा होगा। वहां भैसों के चराने के लिए बहुत अच्छा स्थान है, लेकिन दयाराम के दिल मे कपट था, वो चाहता था,कि कलबिष्ट भाभर तराई में जाये, और वहां मुगलों के हाथ मारा जाए।
कलबिष्ट रामगढ़, नाथुवाखान, भीमताल होकर भाभर तराई गया। भाभर तराई में कलविष्ट को 1600 मंगोली सेना मिली। मंगोली सेना के नेता सुरमा और भागू पठान थे। साथ ही गजुवा डिंगा, और भागा कुर्मी भी उन पठानों के साथ मिल गए। उन्होंने सोचा कि कलबिष्ट जैसा वीर पुरुष उनको मारे, उससे पहले उन्होंने मार देना चाहिए कलविष्ट को। उन्होंने कलविष्ट की ताकत आजमाने के लिए, उससे एक बड़ी लकड़ी की बल्ली ( भराण ) उठाने को कहा, कलविष्ट ने उसको उठा कर दिखा दिया। तब उन्होंने कलविष्ट को मारने के लिए प्रपंच रचा,मेला किया गया गुप्त रूप से हथियार इकट्ठे किये, कलविष्ट के कुत्ते बिल्ली ने ,गुप्तचरों का काम किया, और कलविष्ट को सूचना दे दी। कलविष्ट मेले में गया, उसने कहा कि वो मेले में पहाड़ी नाच दिखायेगा, और बड़ी बल्ली (भरणा) उठाया , और उसको घुमा घुमा कर, सारे दुश्मनों को मार दिया।
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इसके बाद कलविष्ट चौरासी माल गया, चौरासी माल में शेर बहुत थे, कलविष्ट की भैसों को देखकर शेर भी डर गए। कलविष्ट ने चौरासी के 84 शेरो को मार दिया। चौरासी से चलकर कलविष्ट पालिपछऊ में दयाराम के घर गया, वहा जाकर बोला, चौरासी तो अच्छी है, लेकिन वहां दड़वे ( शेर ) बहुत हैं।कलबिष्ट ने फिर दयाराम से कहा कि अगर मुझे प्रपंच से मारा गया तो, मैं पालिपछऊ में भोतकाई आऊंगा। मतलब भूत बनकर परेशान करूँगा।
उसके बाद कलविष्ट कपडख़ान गया, उसने कठधार में डेरा किया। वहां रात को एक दोष (एक प्रकार का भूत) ने उनको तंग किया, भूत कलविष्ट को भैंसों दुहने नही दे रहा था। रातभर कलविष्ट और भूत की लड़ाई हुई,सुबह वह भूत हार गया। कलविष्ट ने उससे एक बचन लिया, किसी को तंग नही करेगा, भूले भटके राहगीरों को रास्ता बताने में मदद करे।
अनेक छल करने के बाद भी वीर कल्लू कोट्यूडी (कलविष्ट) को नही मार पाए, तो श्रीकृष्ण पांडेय जी ने अपने साडू लखड्योड़ी को कहा, कि वह किसी तरह छल से कल्लू कोट्यूडी को मार दे, यानी कलविष्ट को मार दे।
लखड्योड़ी ने छुप कर कलविष्ट के एक भैंस के पैर में कील ठोक दी। फिर कलविष्ट के पास गया, बोला मुझे एक भैंस चाहिए, कल्लू कोट्यूडी ने कहा, जितने चाहिए उतने ले लो। लखड्योड़ी भैस देखने गया,तो वही भैस जिसके पैर में कील ठुकी थी, उसको देखकर बोला, इस भैस के पैर में क्या हुवा ? कल्लू ने देखा कि भैंस के पैर में कील ठुकी है। जैसे ही कल्लू कोट्यूडी (कलबिष्ट )भैंस की कील निकालने झुका, तो लखड्योड़ी ने धोखे से कल्लू के पैर काट दिए, तब कल्लू ने भी दर्द से करहते हुए लखड्योड़ी को जकड़ लिया, और मार दिया। साथ मे शाप भी दिया कि,तेरे पूरे खानदान में कोई नही बचेगा।
कल्लू कोट्यूडी मरकर कलविष्ट देवता बन गया, वह सबसे पहले श्रीकृष्ण पांडेय के लड़के पर चिपटा, जब जागर लगी तो उसने बताया कि कलविष्ट है। कलविष्ट एक अच्छा देवता माना जाता है। उसने केवल उन्हीं लोगों को परेशान किया, जिसने उसका अहित किया, या अहित करना चाहा।
कलविष्ट की पूजा, अधिकतर, कुमाऊं के पालिपछऊ होती है।
कहते हैं, बिनसर में कलविष्ट की मधुर मुरली की धुन और भैसों को बुलाने की धुन अभी भी सुनाई देती है।
कलबिष्ट की मृत्यु के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं, पंडित रूद्रदत्त पंत जी के अनुसार, उसकी हत्या धोखे से श्रीकृष्ण पाण्डे ने की थी। ऐटिकन्स साहब ने हिम्मत सिंह के हाथों मारे जाना स्वीकारा है। एक अन्य कहानी के अनुसार कलबिष्ट की हत्या उसके जीजा लछमसिंह ने उसी की कुल्हाड़ी से की थी।
कलबिष्ट देवता का मंदिर – डाना गोलू देवता मंदिर गैराड़
कहा जाता है, कि कफड़खान में कलबिष्ट का सिर गिरा,सर्वप्रथम मंदिर उनका कफड़खान में बना है। और जहाँ उनका धड़ गिरा वो जगह गैराङ बताई जाती है। गैराड़ में उनका भव्य मंदिर है। मान्यता है, कि गैराड़ मंदिर के गर्भगृह में दो चट्टानों के बीच उनका सिरविहीन धड़ पड़ा है। कलबिष्ट देवता का यह मंदिर , गोलू देवता को समर्पित है। कलबिष्ट देवता को भी गौर भैरव अवतारी माना जाता है। इस मंदिर को डाना गोलू मंदिर, गैराङ गोलू मंदिर के नाम से जाना जाता है। गैराड़ के कलबिष्ट देवता, गोलू देवता की तरह न्यायकारी देवता हैं। वो गरीबों की मदद करते हैं। भूले भटको को रास्ता बताते हैं। पीड़ितो के न्याय देते हैं।
कलबिष्ट देवता की कहानी का संदर्भ – बद्रीदत्त पाण्डे जी की पुस्तक ” कुमाऊं का इतिहास “