Home उत्तराखंड की लोककथाएँ कुमाऊनी भड़ गाथा : रणजीत बोरा और दलजीत बोरा की साहसिक गाथा।

कुमाऊनी भड़ गाथा : रणजीत बोरा और दलजीत बोरा की साहसिक गाथा।

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कुमाऊनी भड़ गाथा

कुमाऊनी भड़ गाथा : मित्रों आपने इस कहानी से पहले इस कहानी के पहले 2 भाग भ्यूराजी और स्यूंराजी बोरा पढ़ लिए हैं। आज आपके लिए लाएं हैं इस वीर भड़ गाथा सीरीज का तीसरा भाग रणजीत बोरा और दलजीत बोरा। इस कहानी के पहले 2 भागों का लिंक इस कहानी के अंत में दिया है , जिसने नहीं पढ़ा वे इन भागों को जरूर पढ़े :-

बोरीकोट के दो राजकुंवर-रणजीत बोरा और दलजीत बोरा भ्यूराजी और स्यूंराजी बोरा के पुत्र थे। कुमाऊं -चंपावत के राजा भारतीचंद को ध्यानीकोट के बाईस भाई झिमौड़ों ने तंग कर रखा था। भारतीचंद के बोरीकोट में स्यूंराजी बोरा के लिये रात-दिन संदेश आने लगे-‘हे बोरा स्यूंराजी! तुम पहले भी माल- भाबर से रकम वसूल कर लाये।

अब बाईस भाई झिमौड़े हमें तंग कर रहे हैं। उनसे तुमने फिर युद्ध करना है।’ संदेश पढ़कर स्यूंराजी मन ही मन हंसा और बोला-‘हे राजा भारतीचंद ! क्या मैंने तुम्हारा जनम भर ठेका थोड़े ही ले रखा है, जो हर संकट से तुम्हें बचाऊं?’ तब दोनों भाई रणजीत बोरा और दलजीत बोरा कहने लगे–‘चाचा जी! पिता जी! चलो, हम भी कुमूं-चंपावत चलते हैं। हम आज आपके साथ अवश्य चलेंगे।’ स्यूंराजी मन ही मन हंसने लगा।

बांस से बांस ही पैदा होता है, शेर से शेर ही पैदा होता है। स्यूंराजी के बेटे व भतीजे दोनों अपनी जवानी में थे। उनका खून खौल रहा था। स्यूंराजी उनकी बलैंया लेने लगा। उसने दलजीत खांडा निकाला और अपने बेटे व भतीजे के साथ चंपावत जाने की तैयारी करने लगा। मोतिमा ने तीनों योद्धाओं की आरती उतारी और उनको विजय तिलक लगाया। जाते समय दोनों बेटे कहने लगे-‘मां! तुम वैरियों निश्चिन्ततापूर्वक और से रहना-खाना। दादा-दादी को पालना। हम पर विजय पाकर जल्दी ही बोरीकोट लौटेंगे।’

हे बोरीकोट की भगवती, हाट की कालिका, छड़ौंज की ऐरी, झांकरी के सैम, बूढ़े बागनाथ, बाला जागनाथ देव तुम इन योद्धाओं के लिये दयावान होना। स्यूंराजी अपने बेटे और भतीजे को लेकर भारतीचंद के दरबार में पहुंचा। भारतीचंद बड़ा खुश हो गया। उसने अपने मंत्रियों को आदेश दिया कि इन योद्धाओं की खूब खातिर करें। स्यूंराजी ने भारतीचंद को अपने कुंवरों का परिचय दिया और उन्हें हिदायत दी-‘तुम्हें मेरे कहे मुताबिक ही चलना है। हमने बाईस भाई झिमौड़ों से लड़ना है।’ भारतीचंद के आदेश से तीनों योद्धा गिरिखेत की ओर चल पड़े।

वहां झिमीड़ों ने अपना खेमा लगाया कि उन।उनके याक, हाथी व घोड़े चर रहे थे। वे चम्पावत के राजा से युद्ध करने और उसे लूटने आये थे। जब वे गिरिखेत के निकट पहुंचे, तो उन्होंने कह। झिमौंड़ों ने सौ-सौ मन के बड़े-बड़े गोल पत्थर रखे थे। सौ -सौ  हाथ कुल ध्वजायें टांग रखी थीं।

सौ हाथ की दीवार बना रखी थी। सी-सी बजर के मुद्गर रखे थे। सौ हाथ घेर वाली बांस की ढालें रखी थी और वह यह चेतावनीपूर्ण संदेश लिखा था-‘अरे योद्धाओ! जीवित मां के बेटे हो तो गोल पत्थरों को उठाकर, दीवार ढहाकर, ध्वजायें लांघकर और मुद्गर नाचकर हमसे युद्ध करने आओगे। हमको ऊंची आवाज में पुकारोगे। मुई मां के बेटे होगे, ध्वजाओं के नीचे से छिर कर आओगे।’ झिमौड़ों का संदेश पढ़कर बोरा भाईयों का खून खौल उठा। उनके चौड़े कंधों में भंवर पड़ने लगे। नसें फड़कने लगीं। वे अपने चाचा, अपने पिता से युद्ध के लिये आदेश मांगने लगे।

गिरिखेत में झिमौड़ों की बाईस पिड़ाई दाल पक रही थी, बाईस पिड़ाई की सूखी सब्जी पक रही थी और साठ पिड़ाई का भात पक रहा था। रणजीत बोरा और दलजीत बोरा स्यूंराजी से आज्ञा पाकर उन गोल और बड़े-बड़े पत्थरों को उठाने लगे। सौ मन का गोल पत्थर उठाकर दलजीत बोरा ने झिमौड़ों के दाल के भगौने में फेंका। झिमौड़े गरम दाल पड़ने से जल मरे। उनका सैन्य दल जल मरा।

दलजीत ने फिर सौ मन का मुद्गर झिमौड़ों के दल की ओर फेंका। सौ मन की ध्वजा गिरिखेत में फेंककर उन्हें ऊंची आवाज में चेतावनी दी-‘अरे झिमौड़ भाइयो! हम लड़ने के लिये आ गये हैं।’ तब झिमौड़ों में सबसे बड़े भाई भंवरी और कुंवरी झिमौड़ बोले-‘भाइयो! अब हम क्या करें, बोरा योद्धा हमसे युद्ध करने आ गये हैं, हमारी दशा आ गई है।’ तब उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया कि युक्तिपूर्वक युद्ध किया जाये एवं छद्मयुद्ध लड़ा जाये।

दूसरे दिन प्रात:काल भंवरी-कुंवरी झिमौड़ों ने गाने-बजाने वालों का रूप धारण किया और हुड़किया बन कर वे बोरा योद्धाओं के शिविर की ओर गये। वहां पहुंचकर वे बोरा वंश के योद्धाओं की वीरगाथा और वंशावली गाने लगे।
बोरों का पवाड़ा गाते-गाते वे वह प्रसंग गाने लगे, जिसमें भ्यूराजी और जैतों की लड़ाई का वर्णन था। भ्यूंराजी का पुत्र दलजीत बोरा अपने पिता की वीरता का वर्णन सुनकर बहुत खुश हुआ और हुड़कियों से बोला-‘तुम जो मांगते हो, मांगो। बोरा वंश के योद्धा अपने वचन को कभी नहीं टालते।’ दलजीतसिंह से वचन लेकर उन मिरासी बने झिमौड़ों ने उससे दलजीत खांडा मांगा।

स्यूराजी उनकी चाल समझ गया। वह उनसे बोला-‘हम दलजीत खांडा तुम्हें दे देंगे, पर युद्ध करने के बाद।’ स्यूंराजी के ऐसा कहने पर झिमौड़ों का दिल टूट गया।वे मरे मन से अपने शिविर की ओर वापस चले गये और वहां पहुंचकर उन्होंने सभी भाइयों को यह बात बताई। सब भाई चिन्ता में डूब गये कि अब तो कल बोरा योद्धाओं से युद्ध करना ही पड़ेगा। दूसरे दिन युद्ध के नगाड़े बजने लगे।

स्यूराजी से दलजीत स्वयं को युद्धका सेनापति बनाये जाने का आग्रह करने लगा। स्यूंराजी मान गया। युद्धभूमि में सबसे आगे दलजीत, फिर सबजीत और अंत में स्यूंराजी झिमौड़ों की ओर बढ़ने लगे। झिमौड़ों ने उन्हें आगे बढ़ते देख तूम्बी से कोहरा प्रकट कर अंधेरा फैला दिया। सारा गिरिखेत अंधकार में डूब गया। वहां हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था। स्यूंराजी कहने लगा-‘बेटो! दलजीत खांडा संभालो।’

दोनों दलों में युद्ध आरंभ हो गया। दोनों ओर से खांडे चलने लगे, कटारें चलने लगीं। दलजीत लड़ते-लड़ते पूर्व दिशा की ओर जाकर अपने ननिहाल की देवी से सत्य और धर्म की पुकार लगाता अंधकार दूर करने की प्रार्थना करने लगा। जिया रानी ने उसकी पुकार सुन ली। क्षण भर में सारा अंधकार दूर हो गया। दलजीत एक फेरे में सौ-सौ योद्धा मारने लगा। झिमौड़ों का आधा लश्कर मारा गया।

भंवरी झिमौड़ ने सौ मन का पत्थर उठाकर स्यूंराजी की ओर फेंका। स्यूंराजी ने उसे बीच में ही पकड़कर झिमौड़ों की ओर वापस फेंक दिया। पत्थर भंवरी झिमौड़ पर जा गिरा और वह मूर्च्छित हो गया। फिर उसके छोटे भाई कुंवरी झिमौड़ ने उससे दुगुना पत्थर स्यूंराजी की ओर फेंका, स्यूंराजी ने बांये हाथ से रोककर उसे चंपावत की ओर उछाल दिया। वह चंपावत में हरसिंह की कमर पर गिरा। उसकी कमर टूट गई। वह समझ गया कि यह पत्थर कहां से आया और किसने फेंका? उसने अपने बेटों को स्यूंजी से बदला लेने गिरिखेत भेजा। बोरा वंश के योद्धा आपस में ही लड़ने लगे। यह देखकर झिमौड़े बहुत खुश हुये।

दलजीत सिंह ने दलजीत खांडे से हरसिंह के बेटों को मार डाला। तब बाईस भाई झिमौड़े तीन बोरा योद्धाओं से एक साथ लड़ने लगे। झिमौड़ों के याक, घोड़े और हाथी खत्म होने लगे। अब केवल ग्यारह भाई झिमौड़े शेष रह गये। वे रणभूमि से भागने लगे। वे सब एक झाड़ी में छिप गये। संध्याकाल को बोरा योद्धा अपने खेमे में लौट आये। स्यूंराजी ने बेटे व भतीजे की सेवा-सुश्रूषा की, सेंका-तोपा किया। कुमूं-चंपावत से उनके लिये भोजन बनकर आया। हाट के पापड़, दूनागिरि की दही और रहप की मछलियां आईं, पूनाकोट बकरा आया। खा-पीकर वे मग्न हो गये।

अपने शिविर में उन्होंने रात को जी भर कर आराम किया। अगले दिन दोनों दल लड़ने के लिये तैयार हो गये। दोनों दलों में घमासान युद्ध शुरू हो गया। बोरा योद्धाओं ने भंवरी, कुंवरी व अन्य बचे झिमौड़ों को मार डाला। झिमौड़ वंश का नाश हो गया। उनके सारे योद्धा व भाई मारे गये। झिमौड़ों का निर्वंश करके तीनों बोरा योद्धा चंपावत पहुंचे। राजा भारतीचंद ने उन सबको शाबासी दी।

भारतीचंद द्वारा भाई के विषय में पूछे जाने पर स्यूंराजी उदास हो गया। उसने भारतीचंद को भ्यूंराजी के विषय में विस्तारपूर्वक बताया। राजा स्यूंराजी की दुःखभरी कहानी को सुनकर खामोश हो गया। वह बोला-‘हे योद्धा तुमको जो भी कष्ट या दु:ख आवे, तुम तुरंत मुझसे कहना, मैं उसे दूर करूंगा।’ तब क्रोध में भरकर दलजीत बोला-‘हे राजा! हमें और हमारे परिवार को दुःख देने वाले तुम्ही हो।

तुम हमारे दुःख क्या दूर करोगे? आज हम तुम्हें भी मार डालेंगे।’ स्यूंराजी ने अपने भतीजे को समझाया-‘बेटे बड़े वृक्ष पर कुल्हाड़ी नहीं चलाते, बड़े व्यक्ति पर अंगुली नहीं उठाते। भारतीचंद की खातिर ही हमारे अमन-चैन हैं।’ कई प्रकार से समझाने पर भी दलजीत नहीं माना। तब स्यूंराजी चाचा से भेंट करवाने के बहाने दलजीत को वहां से ले गया। तीनों
बोरा योद्धा हरसिंह से भेंट करने के लिये गये। हरसिंह ने अपनी कमर की चोट का जिक्र किया और पूछा-‘मेरे बेटे कहां गये।’ दोनों पोतों ने हरसिंह को प्रणाम कर इतना कसकर आलिंगन किया कि उसकी आंतें बाहर निकल आईं, उसका प्राणांत हो गया।

अपने जनम के वैरी को उन्होंने मार डाला। जब भारतीचंद ने हरसिंह के मारे जाने पर खेद प्रकट किया, तो दलजीत ने उसे धमकी दी कि वह हरसिंह का पक्ष न ले, नहीं तो उसकी जीभ में गांठ बांध दी जायेगी। भारतीचंद थर-थर कांपने लगा। उसने बोरों से मनचाही चीज मांगने के लिये कहा। स्यूंराजी बोला-‘हे राजा! मेरे दोनों कुंवर ब्याह योग्य हो गये हैं। तुम इनके लिये कन्या ढूंढ दो।’ राजा बोला-‘हे योद्धा मैं अपने बंधु-बांधवों से पूछकर तुम्हें बताऊंगा। तुम्हें यदि कन्या पसंद आ गयी, तो मैं अवश्य दूंगा।’ राजा प्रसन्न मन से बोरा को कन्या देने के लिये तैयार हो गया। वह स्यूंराजी से बोला-‘तुम अपने माता-पिता से मंजूरी लेकर आ जाओ, बस।

‘ कुमूं-चंपावत में बाईस भाई झिमौड़े प्रेत बनकर अनिष्ट करने लगे। वे झिमौड़े और भौर बनकर राजा के घर में उत्पात मचाने लगे। तभी से वे पीली बर्र और भौंरों की योनि को प्राप्त हुये। कुमूं-चंपावत से संदेशवाहक बोरीकोट पहुंचा। उसने राजा और स्यूंराजी का संदेश झुपसिंह को दिया। झुपसिंह ने संदेशवाहक को जवाब दिया- ‘तुम यह विवाह न करना। राजा और प्रजा के बीच वैवाहिक संबंध नहीं हो सकता।’

झुपसिंह को जब हरसिंह के मारे जाने का दूत से पता चला, तो वह धाड़ मार कर रोने लगा। स्यूंराजी को जब पिता का ऐसा संदेश मिला, तो वह तुरंत बोरीकोट चलने की तैयारी करने लगा। राजा भारतीचंद ने उसे अनेक आभूषण और उपहार दिये, सामान दिया और उसे बोरीकोट के लिये विदा किया। बोरीकोट में अमन-चैन स्थापित हुआ। जैसी खुशी बोरीकोट में हुई, वैसी ही खुशी इस कथा के सुनने वाला! तुम्हारे घर में हो जाये।

इस कहानी के पहले दो इस कहनी पहले दो भाग पढ़े –

  1. कुमाऊं के वीर योद्धा स्यूंराजी बोरा और भ्यूंराजी बोरा की रोमांचक लोक कथा
  2. कुमाऊं के वीर स्यूंराजी बोरा और भ्यूंराजी बोरा की लोककथा भाग – 02
  3. संदर्भ : – देव सिंह पोखरिया जी की पुस्तक उत्तराखंड की लोक कथाएं।
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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