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गढ़वाली बेड़ा गायक – हिमालय के गंधर्व जो अब विलुप्ति की कगार पर हैं।

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garhwali beda geet gayak

गढ़वाली बेड़ा गायक या बेड़ा नामों से पुकारी जाने वाली यह उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की गायन -वादन करने वाली पेशेवर जाती है। उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति में इनका खास स्थान है। ये लोग खुद को गंधर्व गोत्र का बताते हैं। इसलिए इन्हे “हिमालय के गन्धर्व ” कहा जाता है।

खुद को भगवान् शंकर का वंशज बताते हैं गढ़वाल के बादी –

गढ़वाली बेड़ा गायक स्वयं को भगवान् शिव का वंशज मानते हैं। इसलिए ये अपने सर पर भगवान् शिव की तरह जटाएं रखते हैं। इनका मानना है कि इनके पूर्वजों को भगवान् शिव ने संगीत की शिक्षा दी थी। और उनके निर्देश पर लोक में सामवेद की इस विधा का प्रचार करते हैं। इसीलिए गढ़वाल में सम्पादित किये जाने वाले कृषि अनुष्ठान बेडावर्त ,लांग पर बादियो और बादीनो की शिव -पार्वती के रूप में पूजा की जाती है।

ये लोग पशुपालन ,कृषि का काम करते हैं और न ही मेहनत मजदूरी करते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय लोकगीत ,लोकनाट्य द्वारा लोगो का मनोरंजन करना ,और लोककल्याण के लिए बेडावर्त और लांग जैसे साहसिक कृत्यों को करने के लिए जीवन को जोखिम में डालना।

जन्मजात प्रतिभा संपन्न होते हैं गढ़वाली बेड़ा गायक  –

गढ़वाली बेड़ा गायक जन्मजात गायकी और नृत्य की प्रतिभा संपन्न होते हैं गढ़वाल के बादी गायक। और ये समसामयिक ,ऐतिहासिक और सामजिक घटनाओं से संबंधित गीतों की रचना में प्रवीण होते हैं। ये सामाजिक घटनाओं पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। और उन्ही घटनाओं को अपनी काव्य कला और नृत्यकला से प्रस्तुत करते हैं। गढ़वाली बेड़ा गायक यदि काव्य प्रतिभा के धनी हैं तो बादीने नृत्य कला में प्रवीण होती हैं। शादी ब्याह -उत्सवों में अपने नृत्यों की भंगिमाओं से सारे वातावरण को उल्लासित कर डालती हैं। संगीत और नृत्य इनका जीवन होता है। ये सौंदर्य प्रेमी और कलाप्रेमी होते हैं।

गढ़वाली बेड़ा

अपने क्षेत्र बटें होते हैं –

गढ़वाली बेड़ा गायकों के अपने क्षेत्र बंटे होते थे और क्षेत्र विशेष के कृषि की रक्षा इन्हीं की जिम्मेदारी मानी जाती थी औरअपने क्षेत्र की कृषि की रक्षा के लिए बादी अपनी जान को भी दांव पर लगा देता था जिसे ‘लांग’ एवं ‘बड़ावर्त’ जैसे अनुष्ठानों में देखा जा सकता है। सम्पूर्ण जनपद में इनकी ‘विर्ति’ बंटी होती थी और ये अपनी वृतियों में घूमते फिरते थे। इनके अपने स्थायी निवास भी नहीं होते थे।
जहां होते भी थे तो ये लोग स्वयं न कृषि करते थे और न कोई धंधा अपने क्षेत्र में फसल पकने पर ‘डडवार’ (फसल तैयार होने पर इनका हिस्सा वसूल कर जीवनयापन करते थे। सामन्ती एवं ठकुरी राजाओं का मनोविनोद कर समय बिताते थे। मिराशी, बादी, ढक्की आदि पेशवरों के रूप में इनका जीवनयापन करते थे।  सामन्ती युग में ये अपने नृत्य- गीतों द्वारा जमींदारों सामन्तों एवं ठकुरी राजाओं का मनोविनोद कर समय बिताते थे। मिराशी, बादी, ढक्की आदि पेशेवरों के रूप में इनका जीवन चलता रहता था।

विलुप्ति की कगार पर है हिमालय के गंधर्व –

इनकी कला के प्रतीक थे थालीनृत्य, शिव पार्वती नृत्य, नटनटीनृत्य, दीपकनृत्य एवं लांग। ये और भी कई प्रकार की नृत्य शैलियों के जानकार थे, जिनका अपना पुरातन महत्व था और ये कई महत्वपूर्ण अवसरों पर इनका प्रदर्शन भी किया करते थे। किन्तु अब बदलती सामाजिक परिस्थितियों में इनका यह परम्परागत व्यवसाय समाप्ति की कगार पर है।
कई परिवारों की तो आजीविका समाप्त होने से अब वे अन्य व्यवसायों को अपनाकर जीवन यापन करने लगे हैं। उनकी वंश परम्परा से संचित यह अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर लगभग समाप्ति पर है। किन्तु दुःख की बात यह है कि इसके संरक्षण के लिए सरकार या किसी संस्था के द्वारा कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।
संदर्भ – उत्तराखंड ज्ञानकोष प्रो DD शर्मा। 
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