लिंगवास (Lingwas ) उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों ( गढ़वाल और कुमाऊं ) की मृतक संस्कार से जुड़ी परम्परा है। यह परम्परा अन्तोष्टि के ग्यारहवे दिन या तेरहवे दिन या पन्द्रहवे दिन या महीने बाद निभाई जाती है। प्रत्येक क्षेत्र में अलग -अलग समय निर्धारण किया गया है। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों मृतक संस्कार से जुड़ी अलग अलग परंपराएं मनाई जाती है । जिसमे से उत्तराखंड की लिंगवास परंपरा या पित्तरकुडी, ढुंग ठौर रखना, नाम से प्रसिद्ध परंपरा है।
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उत्तराखंड की लिंगवास परम्परा –
मृतक की दाह संस्कार के बाद क्रियाकर्म करने वाला व्यक्ति नदी तट पर स्थित शमशान घाट पर जाकर एक लिंगात्मक पत्थर को उठाता है। और उसे नदी में स्नान करवा कर घर लाता है। इसके अलावा कतिपय क्षेत्रों मेंका मृतक दाह संस्कार करने वाला नदी में एक डुबकी लगाता है ,और उसे उसी डुबकी के साथ नदी के अंदर से एक पत्थर भी उठाना होता है। उसी को अपने पितर स्वरूप मानकर घर ले आता है।
इसके लिए अलग क्षेत्रों में अलग मान्यताएं हैं। लिंगवास की परम्परा के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि दाह संस्कार कर्ता द्वारा चयनित पत्थर उसके मृत पितर का स्वरूप होता है। और वह पितर शिवरूप होकर शिवलोक को प्राप्त होता है।
इस विषय में लोगो की मान्यता है कि समस्त हिमालयी क्षेत्र भगवान् शिव का क्षेत्र होने के कारण मृतक के शिवलोक की प्राप्ति और शिवात्मक हो जाने के प्रतीक के रूप में इस लिंग की स्थापना की जाती है। इस शिवस्वरूपी पत्थर को लेकर जब दाह संस्कार कर्ता घर लेकर आता है तब इसकी पूजा करके इस लिंगस्वरूपी पत्थर को गांव के उस स्थान पर ले जाया जाता है ,जहा गांव के पितरों को लिंग स्वरूप में रखा होता है।
इस स्थान पर गांव के सभी मृतकों को लिंग स्वरूप में स्थापित किया गया होता है। पहाड़ों में कहीं यह एक छोटा सा घर होता है जिसे पितर कुड़ी ( pitra kudi ) कहते हैं। कई जगहों पर एक खुल्ले बाड़े में इन्हे स्थापित किया होता है। पितर को लिंग स्वरूप में पितर कुड़ी में स्थापित करके यहाँ एकत्र मृतक के जाती बिरादरी के लोग बकरा मारकर स्वजातीय लोगो को भोजन कराते हैं। कुमाऊं के कई क्षेत्रों में लिंगवास को ढुंगठौर रखना भी कहते हैं। और पितर कुड़ी को पितरू कहते हैं।
पितर कुड़ी क्या है?
यह अव्यवस्थित पत्थरों से बनाया हुवा चतुष्कोण घर होता है। जिसमे मृतक के प्रतीक के रूप में एक पत्थर को पूर्व मानित पितरो के स्थापित किया गया होता है। श्री यशोधर मठपाल जी कहते हैं पितर कुड़ी महापाषाणी डाल्फमेन का छोटा स्वरूप होता है। इसका प्रचलन मुख्यतः गढ़वाल मंडल और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में अधिक है। यहाँ लिंगवास परम्परा के दिन पितरों को स्थापित किया जाता है।
गढ़वाल के सामान कुमाऊं में भी इस परम्परा का पालन किया जाता है। यह किसी क्षेत्र में पितरकुड़ी बनाई जाती है। कहीं गांव के एक विशिष्ट स्थान पर एक चबूतरा या बाड़ा जैसा बनाकर पितरों को वहां स्थापित किया जाता है। इस परम्परा को कुमाऊं में कहीं ढुंगठौर रखना और पितरो के स्थान को पितरू या पितरघोली कहा जाता है।
अल्मोड़ा में पितरों के लिए पितरखाणी –
इसी प्रकार अल्मोड़ा की पश्चिम दिशा में कटारमल सूर्यमंदिर वाली पूर्वी ढाल को पितरखाणी कहा जाता है। क्युकी वहां आज भी मृत आत्मा की शांति हेतु डोलमेन जैसे घर या पितृथान बनाये जाते हैं। इन्हे पितर कुड़ी कहा जाता है। स्थानीय गावों का कोई निवासी मरता है तो उसकी पाषाण स्वरूप में यहाँ स्थापना की जाती है।
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