देवलांग पर्व रवाईं घाटी का लोकोत्सव है। रवाईं घाटी अर्थात यमुना घाटी के विशेष त्योहारों में शामिल है देवलांग । बूढ़ी दीवाली या मंगसीर बग्वाल की तरह देवलांग भी बड़ी दीवाली के ठीक एक माह बाद मनाई जाती है।
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रवाईं घाटी की समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है देवलांग उत्सव :-
रवाईं घाटी की बनाल पट्टी के गावँ दो दलों में बटे है। एक दल का नाम साठी है, जबकि दूसरे दल का नाम पांसाई। ये दोनों दल एक माह पूर्व से देवलांग की तैयारियां शुरू कर देते हैं। देवलांग मनाने के लिए पहले छिलकों की व्यवस्था की जाती है। और इस दिन अमावस्या के दिन लोग ,व्रत रखते हैं और बड़ी श्रद्धा के साथ देवदार के लंबे पेड़ को राजा रघुनाथ मंदिर में लाते हैं। इस पर छिलके बांधते है।
रात को लोग ,ढोल नगाड़ों के साथ अलग अलग दलों के साथ ,यहाँ पहुचते हैं । नाच गाने के साथ खुशियां मनाते हैं। सुबह होने से पहले , रात्रि के अंतिम पहर में इसके छिलकों में आग लगाकर इसे खड़ा किया जाता है। साठी और पांसाई दलों के लोग इसे खड़ा करते हैं। इसे देवलांग कहा जाता है। यह पेड़ सुबह तक जलता रहता है। अगले दिन यहाँ ऐतिहासिक देवलांग मेला लगता है।
देवलांग का अर्थ –
देवलांग शब्द के अर्थ या इसके मतलब के बारे में डॉक्टर शिव प्रसाद नैथानी जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गढ़वाल की संस्कृति ,इतिहास और लोकसाहित्य में बताते हुए लिखते हैं कि देव का अर्थ होता है वह देवता जो अपने भक्तों का हितेषी है ,उन्हें संकट की पूर्व सूचना देता है और उनके संकटों का निवारण करता है। और पूजा के बाद सभी भक्तों को आशीर्वाद देता है। किन्तु वह प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आता है ,वह परोक्ष प्रिय है। अपना सन्देश देने का माध्यम वो किसी पश्वा या स्यूं बाघ को चुनता है।
और लांग शब्द का अर्थ संस्कृत में हल की लाट ,ताड़ का ऊँचा पेड़ है। अर्थात लम्बे तने वाले पेड़ को भी लांग कहते हैं। कुल मिलकर देवलांग का अर्थ होता है लम्बे तने वाले पेड़ या खम्बे पर देवता का विग्रह ,देवता का निशान या पहचान विराजित कर दें तो वह देवलांग बन जाती है।
प्राचीन काल में यज्ञ अनुष्ठान करना प्रत्येक के बस की बात नहीं थी ,और इतने कुशल ब्राह्मण भी सर्वत्र उपलब्ध नहीं थे। इसलिए बड़ी सरलता से कृषक वर्ग के लोगो ने मनोकूल ,ऋतुअनुकूल या कामना मनौती के लिए देवलांग उत्सव द्वारा देवता को मानाने के लिए इस सरल और सामूहिक उत्सव की परम्परा शुरू की होगी।
ऐतिहासिक देवलांग पर्व की लोक कथा :-,
कहा जाता है कि प्राचीन काल मे , उत्तरकाशी क्षेत्र में कौरव और पांडवो का विशेष लगाव था। खास कर कौरवों का , क्योंकि सारे भारत मे एक उत्तरकाशी ऐसी जगह है। जहाँ कौरवों के राजा दुर्योधन को पूजा जाता है
और कर्ण को भी यहाँ पूजा जाता है। वैसे पूरा उत्तराखंड में महाभारत काल से जुड़ा हुवा है। दुर्योधन को पूजना सुनकर कुछ अटपटा लगता है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दुर्योधन, कौरव पांडव सत्ता के लिए आपस मे लड़े थे। लेकिन जनता के लिए दुर्योधन का कहीं भी नकारात्मक वर्णन नही है। दुर्योधन भी आम राजाओं की तरह जानता के लिए ,जनहितकारी होंगे तभी तो उन्हें भी लोग पूजते हैं।
अब आते है, देवलांग की कहानी पर ,कहा जाता है कि त्रेता युग मे महाभारत के युद्ध का निमंत्रण बनाल पट्टी वालों को भी मिला । और इसमे से कुछ लोगों ने कौरवों का साथ दिया ,जो कालांतर में साठी दल के लोग कहलाये। और कुछ ने पांडवों का साथ दिया ,और वे पांसाई कहलाते है। वर्तमान में देवलांग एक तरह का प्रतीकात्मक धर्मयुद्ध के तौर पर मनाते हैं। बनाल के दोनों तोको के लोग अपने इष्ट देवता राजा रघुनाथ मंदिर में पहुँचते है। और वहां सांकेतिक युद्ध अभ्यास करके , देवलांग को जलाकर ,उसे डंडों और बल्लियों के सहारे खड़ा करते हैं। और उस देव वृक्ष से मन्नतें मांगते हैं ,प्रार्थना करते हैं।
इसके अतिरिक्त देवलांग उत्सव के बारे में यह भी कहा जाता है कि ,टिहरी उत्तरकाशी क्षेत्रों में माधव सिंह भंडारी के सैनिकों के परिवार या सम्बन्धी रहते हैं ,जो प्रत्येक मार्गशीष अमावस्या को माधो सिंह भंडारी के जीत कर वापस आने की ख़ुशी में भैल्लो खेलते हैं ,और रवाई क्षेत्र में साठी -पनशाही परम्परा का आधार लेकर देवलांग मनाते हैं।
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