“बधाण देवता या बौधाण देवता उत्तराखंड में पशुओं की रक्षा और समृधि के देवता के रूप में जाने जाते हैं।और उत्तराखंड के कई भागो में नवजात गाय या भैंस के नामकरण की पूजा को बधाण पूजन ,बलाण पूजन या गाड़ चढ़ाना कहते हैं।”
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बधाण देवता के बारे में
प्राचीन परम्पराओ के अनुसार धिनाई ( दूध दही की सम्पनता ) को उतराखण्ड में सबसे बड़ा धन माना गया है। पहले लड़की की शादी के लिए , लड़के के लिए पहली शर्त होती थी, कि उसके घर मे खूब धिनाई होनी चाहिए अर्थात लड़के का घर दूध दही से परिपूर्ण होना चाहिए। यदि कोई बिना दूध वाली चाय पिये तो उसे अभिशाप समझा जाता था। दूध दही व्यवस्था के अलग अलग नियम होते हैं। और पहाड़ में दूध दही को इतना पवित्र माना जाता था, कि उनके अलग से देवता होते हैं।पशुओं के देवताओं में कुमाऊं में मुख्यतः चमू देवता और बधाण देवता या बौधाण देवता होते हैं। इनके अलावा छुरमुल और कलनाग व ऐड़ी देवो को भी पशुओं और धिनाई का देवता माना जाता है।
कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में बधाण देवता और चमू देवता को पधुओं खासकर दुधारू पशुओं के देवताओं के रूप में पूजा जाता है। इन दोनो देवताओं के अपने अपने क्षेत्र और अपने अपने नियम होते है । इनके क्षेत्र को केरी बोला जाता है। जैसे बधाण क्षेत्र वालों को बधाण केरी और चमू क्षेत्र वालों को चमू केरी। इसी लिए पहाड़ों में एक घर मे यदि अलग अलग खाने की पसंद के लोग होते हैं,तो इनके लिए कहावत कही जाती है, कोई बधाण केरी कोई चमू केरी ।
पहाड़ो में पशुओं के दूध के लिए कठोर नियम होते हैं
जब तक बधाण नही पूजा जाता तब तक ,दूध को अछूत समझा जाता है। उस दूध को किसी भी खाद्य पदार्थ के साथ नहीं मिलाते यहाँ तक कि 11 दिन तक उस दूध का सेवन केवल बच्चो ( बड़े बच्चों ) को कराया जाता है बस। जो देव डांगर (जिनके ऊपर देवता आते हैं) वे भी इस दूध का सेवन नही कर सकते इसके अलावा रजोसवला स्त्री भी इसका सेवन नही कर सकती।
11 वे दिन उस दूध को आटे में मिलाकर भोग बनाया जाता है। जिसे लापसी कहते है। इस भोग को देवता को चढ़ाया जाता है। तब 11वे दिन से उस पशु का दूध रोटी (आटे से बने पदार्थों ) के साथ सेवन शुरू किया जाता है। बाकी नियम यथवात बने रहते हैं। उसके बाद 22वे दिन नवजात की बाईसवीं के तौर पर चमू देवता का पूजन होता है। उस दिन खीर दही, अन्य भोग पूवे आदि बनते हैं ।इस दिन से दूध चावल के साथ शुरू किया जाता है। और इसका सामान्य प्रयोग किया जाता है। इसके बाद भी गावों में पशु के शाम के दूध को अछूत समझा जाता हैं।
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पूजा विधि :-
पहाड़ो में जब किसी पशु ( भैंस या गाय ) का बच्चा होता है ,तो 7-9 या 11 वे दिन नवजात पशु का नामकरण किया जाता है। इस नामकरण की प्रक्रिया को गाड़ चढ़ाना कहा जाता है। उत्तराखंड में कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में बधाण देवता के रूप में पूजे जाते हैं । और कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों और गढ़वाल मंडल के कई क्षेत्रों में बधाण पूजन या बलाण पूजा नवजात पशु के नामकरण की पूजा को कहते है। इस पूजा में गोबर के भगवान गणेश की प्रतिमा बना कर उन्हें ,लकड़ी का खूंटा बनाकर या पुराने खूंटे पर पूजा जाता है। कहीं गाय या भैंस को गुड़ मंतर कर भी खिलाया जाता है। और कई क्षेत्रों में बधाण पूजन में पानी के स्रोत के पास ,भगवान गणेश जी को बालक के रूप में पूजा जाता है। इस पर एक लोक कथा भी है।
पशुओं के देवता के पूजन के हर गांव में अलग -अलग नियम हैं –
“यहाँ पर एक चीज स्पष्ट करना चाहते हैं कि बधाण देवता और चमू देवता के पूजन के हर गांव या क्षेत्र में नियम अलग अलग हैं । कहीं केवल एक ही देवता पूजे जाते हैं। और कहीं दोनो पूजे जाते हैं ,11वे दिन बधाण देवता और 22वे दिन चमू देवता । कुल मिलाकर उत्तराखंड में अलग अलग क्षेत्रो में बधाण पूजन की अलग अलग परम्परा है।”
कुमाऊं क्षेत्रो में बधाण देवता का पूजन पशु के खूंटे ( जिसको पहाड़ी में किल कहते हैं ) पर किया जाता है। नवजात के लिए एक फूल माला बनाते हैं । गाय के शुद्ध गोबर के प्रतीकात्मक बधाण देवता या दिया बनाया जाता है। उसके पूजा करके उसे गाय या भैंस का ताजा दूध का भोग चढ़ाया जाता है।भोग में विशेष कुमाऊनी पकवान लापेसि या लापसी बना के चढ़ाई जाती है। कई गावो में बधाण देवता का मंदिर है, तो वहाँ घर मे पूजा करने के बाद,मंदिर मे दूध चढ़ाने की प्रथा भी है। इनमें प्रसिद्ध नैनीताल जिले के,पंगोट कोटाबाग में स्थित बधाण थली का मंदिर प्रसिद्ध है।
बधाण देवता पूजन की लोक कथा :-
कहते है पहाड़ों में प्राचीन काल मे , बधाण पूजा चूल्हे के बगल में की जाती थी। और भगवान गणेश स्वयं बाल रूप में साक्षात भोग खाने के लिए आते थे।एक बार एक बुजुर्ग माता जी ने ,जल्दबाजी में गर्म खीर उनके हाथ में रख दी। जिससे भगवान गणेश का हाथ जल गया। और उधर बुजुर्ग औरत के गाय ने दूध देना बंद कर दिया। काफी पूजा पाठ खोज खबर करने के बाद , यह पता चला कि , गणेश जी के हाथ मे गर्म खीर रखने के कारण उनका हाथ जल गया और वे रूष्ट हो गए । इसलिए भगवान गणेश की मनाने के लिए बधाण पूजा पानी वाले स्थान पर होनी चाहिए। तबसे उनकी पूजा पानी वाले स्थान पर की जाती है।
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