मकर संक्रांति के अवसर पर उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर विकास खंड में थल के नजदीक के मैदान में लगने वाला यह गिंदी मेला या गेंद मेला, उत्तराखंड के प्रसिद्ध मेलों में गिना जाता है। गिंदी मेले का आयोजन प्रतिवर्ष अजमेर और उदयपुर पट्टियों के बीच डांडामंडी में लंगूर पट्टी के दोनों भागों के बीच थल नदी के मैदान में किया जाता है। इसके अलावा भी कई स्थानों पर इस प्रकार के मेलों का आयोजन किया जाता है। लेकिन डांडामंडी का गेंद मेला अधिक प्रसिद्ध है।
त्यौहार व् मनोरजन के अलावा मेले का धार्मिक उत्सव के रूप में भी महत्त्व है। डांडामंडी के नजदीक बौंठा गावं के अंतर्गत भटपुड़ी में पौष माह के आखिरी दिन संपन्न की जाने वाली पूजा के बाद ,गांव के किसी हरिजन बंधू को चमड़े की बड़ी गेंद बनाने का कार्य दिया जाता है। वह गेंद का निर्माण करके उसे पकड़ने के लिए ,चमड़े के ही दो कंगन भी लगाता है। मकर संक्रांति के दिन पहले देवी माँ का पूजन किया जाता है। फिर उस गेंद का पूजन करते हैं। इसके बाद गेंद को थलनदी के डांडा मंडी मैदान में लाया जाता है।
प्रतिस्पर्धी जनसमूह जुलुस के रूप में झंडे ले जाकर मैदान के बीच में गाड़ देते है। और गेंद को अपने हाथ में रखते हैं। उधर लंगूर पट्टी में भी जमेली गांव के लोग संक्रांति पूर्वाह्न में देवी और भैरव की पूजा करते हैं। ये लोग बारी बारी से एक साल एक साल भैरव देवता का झंडा और एक साल देवी का झंडा लेकर मैदान में जाते हैं। मैदान में झंडा गाड़ के तब तक नृत्य संगीत करते हैं ,जब तक भटपुड़ी के लोग गेंद लेकर नहीं आ जाते। इस प्रतिस्पर्धा मेंगावों के नदी के बायीं ओर के लोग एक तरफ और दक्षिण भाग की तरफ के लोग एक तरफ होते हैं। इस प्रकार दो टीमों में बटें लोग मैदान के दोनों ओर खड़े हो जाते हैं। गेंद को मैदान के बीच में रख दिया जाता है। वहां पर एक मध्यस्थ व्यक्ति के संकेत पाते ही ,दोनों टीमों के लोग गेंद को झपटकर ,उसपर अपना अधिकार करने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी कोई इसे बाँहों में भरकर ,छाती से चिपटा लेता है ,तो दूसरा उसके कंगन पकड़ कर अपनी ओर खींचता है।
गेंद मेला आधुनिक रग्बी खेल की तरह होता है। जिसमे बड़ी गेंद को दो दल अपने कब्जे में लेने की कोशिश करते हैं।
इस बीच दोनों दलों के ढोल नगाड़े वाले ढोल नगाड़े बजा कर अपनी टीम का उत्साहवर्धन करते है। जनता भी हल्ला करके अपनी – अपनी टीम का उत्साह वर्धन करती है। अंत में एक एक निश्चित समय बाद गेंद पर कब्ज़ा करने वाला दल ,गेंद को अपने गांव ले जाता है। वहां मंदिर में देवताओं की पूजा के साथ गेंद की पूजा की जाती है। और रात भर नाचगाने के साथ विजयोत्सव मनाया जाता है। अगले दिन देवपूजन के साथ गेंद का पूजन करके मंदिर सामने गाड़ दिया जाता है। कहते हैं पहले इस गेंद को विजयचिन्ह के रूप में मंदिर के बगल वाले कमरे में रख दिया जाता था।
संदर्भ – प्रोफ़ेसर DD शर्मा जी की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष के आधार पर !
फोटो – सभार सोशल मीडिया मित्र
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