साठी-पासी: भारत के पश्चिमोत्तरी हिमालयी क्षेत्रों की सांस्कृतिक विविधता में लोक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है। उत्तराखंड के रवांई-जौनपुर और जौनसार-बावर, तथा हिमाचल प्रदेश के महासू जनपद में बसे जुब्बल और डोडराक्वार क्षेत्र में ‘साठी-पासी’ नामक परंपरा महाभारतकालीन कथा से प्रेरित है। यह शब्द युगल क्रमशः कौरवों और पांडवों के पक्षधरों का बोध कराता है। यहाँ कौरवों के अनुयायियों को ‘साठा’ या ‘साठी’, जबकि पांडवों के अनुयायियों को ‘पासी’ या ‘पाठा’ कहा जाता है .
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साठी-पासी की परंपरा का ऐतिहासिक आधार :
स्थानीय मान्यता के अनुसार, कौरवों की संख्या सौ नहीं, बल्कि साठ मानी जाती है। इस मान्यता के आधार पर, कौरवों के पक्षधरों के क्षेत्र को ‘साठीबिल’ और पांडवों के पक्षधरों के क्षेत्र को ‘पासीबिल’ कहा जाता है। उत्तराखंड के जौनसार-बावर और हिमाचल के महासू क्षेत्र में टोंस नदी इन क्षेत्रों को विभाजित करती है। टोंस नदी के उत्तरी तट पर बसे लोग साठी (कौरव अनुयायी) माने जाते हैं, जबकि दक्षिणी तट पर बसे लोग पासी (पांडव अनुयायी) कहे जाते हैं।
महासू देवता और साठी-पासी का संबंध:
साठी और पासी का यह वर्गीकरण धार्मिक और सामाजिक जीवन में भी परिलक्षित होता है। क्षेत्र के प्रमुख देवता ‘महासू’ का प्रवास चक्र भी इसी आधार पर निर्धारित है। महासू देवता बारह वर्षों तक पासीबिल (पांडव क्षेत्र) में रहते हैं और अगली बारह वर्षों के लिए साठीबिल (कौरव क्षेत्र) में स्थानांतरित होते हैं। इन क्षेत्रों में देव आराधन और उत्सवों का आयोजन भी इसी परंपरा से जुड़ा हुआ है।
ठोडा उत्सव: शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक :
साठी और पासी के बीच परंपरागत प्रतिद्वंद्विता का प्रदर्शन ठोडा उत्सव में होता है। जुब्बल के महासू मंदिर के प्रांगण में बै बैसाखी के अवसर पर आयोजित इस उत्सव में साठी और पासी धड़ों के योद्धा धनुष-बाणों के माध्यम से युद्ध कौशल का प्रदर्शन करते हैं। यह आयोजन महाभारत की युद्ध परंपरा की स्मृति को जीवंत करता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजन का प्रभाव :
साठी-पासी का यह वर्ग विभाजन धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रभाव डालता है। देव आराधन के दौरान, दोनों पक्षों के लोग अपने-अपने देवताओं की प्रतिष्ठा और शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। भादो जागरण, ज्येष्ठ मौण, और मार्गशीर्ष के देवलांग जैसे अवसरों पर देवताओं और अनुयायियों के बीच यह संघर्ष कभी-कभी हिंसक भी हो जाता था। इसका प्रभाव रवाई क्षेत्र में होने वाली देवलांग में भी देखने को मिलता है। यहां भी लोग दो धड़ों में विभाजित होते हैं । साठी और पासी ।
पौराणिक परंपरा से वर्तमान तक :
ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत के युग में कौरव और पांडवों के साथ खड़े खश समुदायों की यह प्रतिद्वंद्विता आज भी सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक रूप में जीवित है। यह परंपरा न केवल महाभारतकालीन कथाओं को सहेजने का माध्यम है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है।
निष्कर्ष :
साठी-पासी की यह परंपरा न केवल उत्तराखंड और हिमाचल की अनूठी सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि यह हमें हमारी प्राचीन परंपराओं और महाभारत के इतिहास से जोड़ती है। इस तरह के आयोजन न केवल क्षेत्रीय लोकजीवन को समृद्ध करते हैं, बल्कि हमारी ऐतिहासिक धरोहर की महत्ता को भी बनाए रखते हैं।
संदर्भ : उत्तराखंड ज्ञानकोश पुस्तक ( प्रो देवीदत्त शर्मा )
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