Home दार्शनिक स्थल नारायण आश्रम उत्तराखंड का इतिहास (Narayan Ashram Uttarakhand)

नारायण आश्रम उत्तराखंड का इतिहास (Narayan Ashram Uttarakhand)

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नारायण आश्रम की स्थापना 1936 में श्री नारायण स्वामी जी ने की थी। यह पिथौरागढ़ से 136 किमी दूर है। और तवाघाट से 14 किमी दूर है। नारायण आश्रम समुद्रतल से 2734 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह आश्रम धारचूला स्टेशन से 23 किमी दूर है। प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसा यह आश्रम ध्यान योग की गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है।

नारायण आश्रम उत्तराखंड का इतिहास –

नारायण स्वामी का जन्म दक्षिण एक सम्पन्न परिवार में हुवा था। किन्तु इनके मन में युवास्था में ही वैराग्य उत्पन्न हो गया था। अपने सम्पन्न परिवार का त्याग कर ये हिमालय को आ गए। बद्री -केदार ,हरिद्वार आदि दर्शन के बाद 1935 में कैलास मानसरोवर की यात्रा से लौटते समय स्थानीय लोगो से मुलाकात और उनका आतिथ्य ग्रहण किया। उस समय वहां की परिस्थियाँ देखकर वहां एक आश्रम की स्थापना का निर्णय लिया।

सर्वप्रथम 26 मार्च 1936 को एक पर्णकुटीर के रूप में आश्रम की स्थापना की गई। एक ध्वज पर ॐ श्री नारायणाय नमः लिखकर ध्वज लहराया गया। स्थानीय मजदूरों की वर्षों की मेहनत और स्थानीय तथा महाराष्ट्र और गुजरात के भक्तों की बदौलत यह आश्रम बन कर तैयार हुवा। उस समय अल्मोड़ा तक ही सड़क की सुविधा थी। अल्मोड़ा से पैदल आना जाना होता था। उस समय भवन बनाना बहुत संघर्ष का काम होता था।

नारायण आश्रम स्थापना के उद्देश्य –

यहाँ आश्रम स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य था इस क्षेत्र की सामाजिक ,आध्यात्मिक और शैक्षणिक उत्थान। उस समय सीमांत क्षेत्र में ईसाई मिशनरीज भी सक्रीय थी। वे वहां बड़े जोर शोर से धर्मपरिवर्तन में सक्रिय थे। इस लिहाज से भी वहां नारायण आश्रम की स्थापना महत्वपूर्ण हो गई थी।

नारायण आश्रम उत्तराखंड का इतिहास (Narayan Ashram Uttarakhand)

आश्रम में की जाने वाली गतिविधियां –

यह आश्रम धार्मिक ,योग ,ध्यान और प्रकृति की सुंदरता का आनंद और ट्रैकिंग की गतिविधियां की जाती हैं । महाराष्ट्र और गुजरात के भक्त /पर्यटकों की आवाजाही यहां अधिक होती है।

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कैसे पहुचें –

नारायण आश्रम का नजदीकी रेलवे स्टेशन टनकपुर है। और यहां का नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर है। यहाँ पहुँचने के लिए सबसे पहले आपको धारचुला पहुँचना होगा। धारचूला से नारायण आश्रम की दूरी 44 किमी है।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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