Home कुछ खास कहानियाँ उत्तराखंड के नागदेवता और कुमाऊं की प्रसिद्ध नागगाथा

उत्तराखंड के नागदेवता और कुमाऊं की प्रसिद्ध नागगाथा

0
उत्तराखंड में नागदेवता

उत्तराखंड के नागदेवता

हिमालयी क्षेत्रों और उत्तराखंड में नागदेवता की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से बहुप्रचलित रहा है। उत्तराखंड में कुमाऊं मंडल की अपेक्षा गढ़वाल मंडल में ज्यादा प्रचार देखा जाता है। टिहरी गढ़वाल में स्थित सेम -मुखेम नामक नागराजा का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण को नागराजा के नाम से पूजते हैं।

इसके अलावा नागेलो और नागदेव के भी अनेक पूजा स्थल हैं , जिसमे से पौड़ी उफल्टागांव में है , जिसमे गेहूं की तराई के बाद हर तीसरे वर्ष जून के महीने ४० किलो का रोट चढ़ाया जाता है। इसके अलावा उत्तरकाशी के रवाई घाटी के पुरोला तहसील में कालियानाग का एक प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ निरन्तर धूनी जलती रहती है।

कहा जाता है कि ,इस मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का जाना वर्जित है। पूष माह में यहाँ अनोखा त्यौहार कठओ मनाया जाता है। उत्तरकाशी जिले के हर्षिल के पास सुक्की गांव और उसके ३ किलोमीटर दूर एक नागमंदिर है। इसके अलावा यहाँ लगभग हर गांव में बड़े पेड़ के निचे नागदेवता का मंदिर होता है। रवि और खरीफ की फसलों पर इनको भेंट चढाई जाती है। इस क्षेत्र में परिवार के किसी सदस्य द्वारा नाग देखने पर नागदोष माना जाता है। इसका निराकरण के लिए  टिहरी गढ़वाल में स्थित सेम -मुखेम नामक तीर्थ स्थल की यात्रा आवश्यक मानी जाती है।

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी नागदेवता को समर्पित कई मंदिर हैं। कुमाऊं के बागेश्वर जनपद में नागदेवता को अधिक पूजा जाता है। बागेश्वर में नागदेवता के प्रसिद्ध मंदिरों में ,धौलीनाग ,फेनीनाग ,बेणीनाग ,पिंगलनाग ,सूंदरनाग ,कालीनाग ,वासुकीनाग आदि।  इसके अलावा नैनीताल में करकोटनाग के अलावा अल्मोड़ा जिले में ग्वालदम के पास  जंगल में नागदेवता का प्राचीन मंदिर है।

उत्तराखंड के नागदेवता

नागथात –

नागजाती की स्मृतिचिन्ह के रूप प्रसिद्ध है। यह स्थान देहरादून जिले के जौनसार -बावर में चकराता मसूरी मार्ग पर बैराटगढ़ से ३ किलोमीटर एवं वैराटगढ़ से लगभग ८ किलोमीटर दूर स्थित एक रमणीय स्थल है। यहाँ पर नागों के राजा वासुकी का प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ वर्ष में अनेक लोकोत्सवों का आयोजन किया जाता है।

उत्तराखंड में नाग देवता की नागगाथा –

कुमाऊं में प्रचलित नागगाथा के अनुसार , जब द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना नदी में कालियानाग का मान मर्दनकर दिया। तब कालीनाग अपनी नागिनों  को लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों में आ गया। उत्तराखंड के मूलनाग पर्वत पर आकर सपरिवार रहने लगा। मूलनाग पर्वत समुद्रतल से लगभग दस हजार मीटर की उचाई पर बागेश्वर के आगे कामेड़ी देवी नामक स्थान  से लगभग ७ किलोमीटर आगे स्थित है।

इस स्थान पर रहते रहते कालियानाग के वंश में काफी वृद्धि हो गई , तो मूलनाग पर्वत पर स्थान की कमी होने लगी। तब कालिया नाग ने अपने पुत्रों और पौत्रों को आदेश दिया कि सभी अलग अलग पर्वतों पर निवास करें। और अपनी -अपनी प्रजा की रक्षा और पालन पोषण करें। तब कालिया नाग का भाई फिणनाग कमेड़ी के ऊपरी शिखर पर अपना निवास बनाया।

दो भाई किणनाग कमस्यार की तरफ चले गए। धौलीनाग गंगोली के ऊँचे शिखर पर जा बैठे। बड़ाऊ के पर्वत शिखर पर निवास बनाया बेणीनाग ने। और वासुकीनाग ने अठिगावं के पर्वत को अपना निवास बनाया। सुंदरीनाग ने रामगंगा पार करके चलमलिया शिखर को अपना घर बनाया। पिंगलनाग अर्थात पीला नाग शरीर से बहुत वजनदार था।  वह पर्वत नहीं चढ़ सकता था। इसलिए  उसने कालकोटि मैदान को ही अपना घर चुन लिया।

चूँकि कालीनाग या कालियानाग सबसे बड़ा था ,इसलिए उसने पुंगराउ के सर्वोच्च शिखर को अपना निवास बनाया।  यह पर्वत बहुत ही मनभावन और रमणीय है। इस पर्वत शिखर के आस पास दसोली की एक विधवा प्रतिदिन अपनी भैंस को चराने के लिए इस पर्वत शिखर के आस -पास आती थी। उसकी भैस दिन भर चरने के बाद दूध नहीं देती थी। वो बहुत परेशान  रहती थी।

और उसे आश्चर्य भी होता था। एक दिन उसने भैस को दिन भर छिप कर देखने का निर्णय लिया। उसने देखा कि उसकी भैस कालियानाग के लिंग के ऊपर अपना सारा दूध निकाल रही थी। यह देखकर उस विधवा को बहुत गुस्सा आ गया ,उसने अपने कृषि हथियार से उस लिंग को तोड़ दिया। और उसे शाप दिया कि ,अब तू भैंस  का दूध कभी नहीं पी पायेगा। इतने में सारा पर्वत कांपने लगा। अचानक आवाज आयी ,जिस प्रकार तूने मेरा लिंग खंडित किया है।

उसी प्रकार तेरा वंश भी नष्ट हो जायेगा। सब दरिद्रता को प्राप्त हो जाएंगे। भविष्य में मेरे इस मंदिर में स्त्री की छाया कभी ना पड़े। और मेरे लिंग को लोहे के हथियार से खंडित किया गया है।  इसलिए मेरे मंदिर में भविष्य में लोहे के नाम पर सुई भी न आने पाए। आज भी कालीनाग के शिखर पर स्त्रियां नहीं जाती और लोहे के सामान में एक सुई तक नहीं जाती।

कालीनाग का एक पुत्र था धुमरीनाग वो पिता के निर्देश पर खापरचुला पर्वत शिखर पर रहने लगा। वहां रहते रहते उसे घमंड हो गया था कि वो अपने पिता से ऊँची जगह पर रहता है।और वो कहने लगा कि वो कालीनाग से बड़ा हो गया है। जब कालीनाग को यह बात पता चली तो ,वो क्रोधित होकर वही जाकर उसे एक लात मारी ,कहते है कि धुमरीनाग पिता की मार नहीं सह सका और पर्वत सहित पाताल में धसने लगा। तब लोक देवता  छुरमल और अन्य नागों ने उस पर्वत को और धुमरी नाग को रोका। कहा जाता है , कि आज भी धुमरीनाग का लिंग 45 डिग्री के कोण पर स्थित है।

इसे भी पढ़े _
नरशाही मंगल , उत्तराखंड के इतिहास का एक नृशंश हत्याकांड
उत्तरकाशी का त्रिशूल- एक आदिकालीन दिव्यास्त्र ,जो स्थापित है उत्तरकाशी के शक्ति मंदिर में।

हमारे व्हाट्स ग्रुप से जुडने के लिए यहां क्लिक करें।

Exit mobile version