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कोट भ्रामरी मंदिर जहाँ दो देवियों की एक साथ पूजा होती है –
कोट भ्रामरी मंदिर उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले में अल्मोड़ा -बागेश्वर राजमार्ग पर स्थित है। कत्यूरी शासकों द्वारा स्थापित प्रसिद्ध बैजनाथ मंदिर से 03 किलोमीटर दूर 975 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटी पहाड़ी पर पुराने दुर्ग के अन्दर स्थित एक मंदिर है। कोट की माई अथवा भ्रामरी देवी के नाम से ज्ञात यह मंदिर मल्ला कत्यूर में कत्यूरियों के प्रशासनिक केन्द्र तैलीहाट में छोटे से पुरातन दुर्ग की दीवारों के अन्दर स्लेटों से आच्छादित देवी का मंदिर है। यहां पर कत्यूरियों की कुलदेवी भ्रामरी एवं चन्दवंशियों द्वारा प्रतिष्ठापित नन्दा की पूजा संयुक्त रूप से की जाती है।
जो यहां पर यह एक शक्तिशिला के रूप में प्रतिष्ठापित हैं। इससे संलग्न भोगशाला, गोदाम, धर्मशाला, भागवतपीठ की अवस्थिति स्पष्ट बताती है कि कभी यह एक मान्यता प्राप्त शक्तिपीठ हुआ करता होगा। यहां पर सात्विक प्रकृति की भ्रामरी को गुड़पापड़ी का भोग लगाया जाता है और नन्दा को बलि चढ़ाई जाती है। बलि के समय भ्रामरी की ओर पर्दा कर दिया जाता है। भ्रामरी देवी का विवरण दुर्गासप्तशती के 11वें अध्याय में प्राप्त होता है।
कोट भ्रामरी मंदिर में नंदा देवी स्थापित होकर बन गई नंदाभ्रामरी –
नन्दा के सम्बन्ध में यह जनश्रुति प्रचलित है कि जब चन्दशासक नन्दा की शिला को गढ़वाल से अल्मोड़ा के लिए ला रहे थे तो रात्रि विश्राम हेतु इसके निकटस्थ झालीमाली ग्राम में रुके थे। अगले दिन प्रातः काल इसे ले जाने के लिए जब सेवकों ने इसे उठाना चाहा तो शिला को उठाना तो क्या उनसे यह इंच भर भी नहीं हिलायी गयी। वे सब हताश होकर बैठ गये। तब ब्राह्मणों ने राजा को सलाह दी की देवी का मन यहां रम गया है, वह यहीं रहना चाहती हैं अतः आप इसकी यहीं पर स्थापना कर दें ।
तद्नुसार झाली-माली गांव में ही एक देवालय का निर्माण करवा कर वहीं पर उसकी प्रतिष्ठा करवा दी गयी और कई वर्षों तक वहीं पर उसकी पूजा आराधना की जाती रही। किन्तु बाद में किले के अन्दर भ्रामरी देवी की स्थापना के साथ ही नन्दा की स्थापना भी वहीं कर दी गयी और इसका पूजन नन्दाभ्रामरी के नाम से किया जाने लगा।
कोट की माई मंदिर का धार्मिक महत्व –
चैत्र तथा भाद्रपद मास की नवरात्रों में अष्टमी को यहां पर विशेष उत्सवों का आयोजन होता है। इसके अतिरिक्त यहां पर भाद्रपद मास की सप्तमी की रात्रि को जागरण उत्सव होता है जिसमें परम्परागत रूप में गौणाई के बोरा जाति के लोगों के द्वारा नंदा के नैनोकों (नंदा देवी के कथा गीत ) का गाना किया जाता है। इन सामूहिक कथा गीतों में एक ओर पुरुष तथा दूसरी ओर महिलाओं की सहभागिता हुआ करती है। इसमें घौणाई के कोलतुलारी तथा दरणा तोकों के मठाणी ब्राह्मणों के परिवारों में नन्दादेवी का अवतरण भी होता है।
इस अवसर पर घेटी अमस्यारी के लोगों के द्वारा केले के पौधों के तनों से नन्दादेवी की मूर्ति बनाई जाती हैं तथा अगले दिन (अष्टमी को) देवी का पूजन एवं बलिदान किया जाता है। ( बलि प्रथा वर्तमान में उत्तराखंड में बंद है ) मंदिर की पूजा-अर्चना का दायित्व तैलीहाट के तिवाड़ियों का हुआ करता है। चमोली, दानपुर, गिवाड़, सोमेश्वर तथा बोरारौ की जनता की बहुमान्य इष्टदेवी होने के कारण इन क्षेत्रों के लोग भी शुभ-मांगलिक अवसरों पर यहां आकर इसे अपने श्रद्धासुमन चढ़ाने के लिए अवश्य ही इस क्षेत्र की यात्रा करते हैं।
इसके अतिरिक्त कोट की माई मंदिर में चैत्रमास की नवरात्रियों की अष्टमी को भी पूजोत्सव का आयोजन होता है जिसमें काफी बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भागीदारी रहती है। नन्दा के रूप में इसका सम्बन्ध नन्दा की राजजात से भी सम्बद्ध है। नौटी से प्रति 12 वर्ष के अन्तराल से आयोजित की जाने वाली नन्दाजात में सम्मिलित होने के लिए अल्मोड़ा से प्रस्थान करने वाली जात का दूसरा रात्रि विश्राम यहीं पर होता है। यहीं से राजजात में जाने वाली देवी की स्वयंभू कटार को ले जाया जाता है जो कि ग्वालदम, देवाल होते हुए नन्दकेसरी में प्रधान जात में सम्मिलित होती है तथा राजजात की समाप्ति पर पुनः इसे यहीं लाकर स्थापित कर दिया जाता है।
साभार – प्रो DD शर्मा ,उत्तराखंड ज्ञानकोष
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