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जोशीमठ का इतिहास

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जोशीमठ का इतिहास
जोशीमठ

जोशीमठ का उत्तराखंड के राजनीति और सांस्कृतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व का यह स्थान, उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चमोली जनपद में पैनखंडा परगने में समुद्रतल से 6107 फीट उचाई पर स्थित है। चमोली-बद्रीनाथ मार्ग पर कर्णप्रयाग से 75 किमी, चमोली से 59 किमी आगे और बद्रीनाथ से 32 किलोमीटर पहले औली डांडा की ढलान पर, अलकनंदा के बायीं ओर स्थित है। यहाँ से विष्णुप्रयाग लगभग 12 किलोमीटर दूर है। और जोशीमठ से फूलों की घाटी 38 किलोमीटर दूर है। कहा जाता है ,कि यहाँ 815 ईसवी पूर्व एक शहतूत के पेड़ के नीचे ज्ञान की दिव्य ज्योति प्राप्त की थी। तब से इसका नाम ज्योतिर्मठ पड़ा और जोशीमठ उसका विकसित रूप है। जोशीमठ में ही उन्होंने शंकर भाष्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। यहाँ आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने चार मठो में से एक मठ की रचना की थी।  जिसका नाम ज्योतिर्मठ रखा था। कहा जाता है कि यह मठ शंकराचार्य ने अपने अनन्य शिष्य त्रोटका को सौप दिया था। बाद में वे यहाँ के प्रथम शंकराचार्य बने।

यहाँ पर स्थित शिवालय को ज्योतिश्वर महादेव कहा जाता है। मुख्य मंदिर भगवान् विष्णु को समर्पित है। इसके अलावा यहाँ पर भगवान विष्णु के अवतार भगवान् नरसिंह, वासुदेव, नवदुर्गा के मंदिर परिसर भी हैं। पहले शीतकाल में भगवान् बद्रीनारायण की उत्त्सव मूर्ति भी यहीं आती थी। यहाँ मुख्य मूर्ति भगवान् नरसिंह की है, जो काळा स्फटिक के पत्थर से बनी है। कहा जाता है कि इसका बयां हाथ प्रतिवर्ष कोहनी के पास से प्रतिवर्ष क्षीण होता जा रहा है। और जब यह पूरी तरह क्षीण होकर गिर जायेगा तो, नर और नारायण पर्वतों के मिल जाने से बद्रीनाथ धाम का मार्ग बंद हो जायेगा। उसके बाद भगवान् बद्रीनाथ की पूजा भविष्य बद्री में होगी। इसके पास पूर्णागिरि देवी का शक्तिपीठ है, यहाँ आदि शंकराचार्य की गद्दी है।

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कत्यूर घाटी के कार्तिकेयपुर को अपनी नई राजधानी बनाने से पहले जोशीमठ कत्यूरियों की राजधानी थी और इसे कीर्तिपुर के नाम से जाना जाता था। कत्यूरी शाशकों के ताम्रपत्रों में इसे इसी नाम से अभिहीत किया गया है। बद्रीनाथ के पुजारी रावल और उनके अधीनस्थ कर्मचारियों का शीतकालीन निवास यही होता है। भगवान बद्रीनाथ की शीतकालीन पूजा भी यही होती है। कहा जाता है कि भगवान् बद्रीनाथ की शीतकालीन पूजा की परम्परा स्वामी रामानुजाचार्य ने 1450 ईसवी पूर्व की थी। यहाँ पर एक शहतूत का लगभग 2400 वर्ष पुराना वृक्ष है। इसकी जड़ की गोलाई 36 मीटर है। इसे पवित्र कल्पवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे आदिशंकराचार्य की तपस्थली गुफा भी है। जिसे ज्योतिश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

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