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जौलजीबी मेला ग्राउंड में ऐतिहासिक जौलजीबी मेला

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जौलजीबी मेला

जौलजीबी मेला का परिचय –

भारत, नेपाल और तिब्बत तीन देशो की संस्कृति का संगम अंतर्राष्ट्रीय जौलजीबी मेला प्रतिवर्ष 14 नवंबर से शुरू होकर लगभग 10 दिन तक अर्थात 24 नवंबर तक चलता है। पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 68 किलोमीटर दुरी पर स्थित रमणीक स्थल जौलजीबी तीन नदियों के संगम (काली, गोरी, और सरयू) पर स्थित है। इस मेले कोअंतर्राष्ट्रीय मेला कहते हैं क्योंकि इसमें भारत, नेपाल, तिब्बत (चीन) के लोग भाग लेते हैं। अपने अपने देश के स्थानीय उत्पाद इस मेले में बेचते हैं। स्थानीय स्तर के खास पहाड़ी उत्पाद इस मेले के आकर्षण रहते हैं।

1962 के युद्ध से पहले तिब्बती लोग भी बड़े जोर शोर से इस ऐतिहासिक मेले में भाग लेते थे। लेकिन भारत चीन के युद्ध के उपरांत तिब्बत के लोगों का आना बंद हो गया लेकिन भारत चीन की स्थलीय व्यापर निति के द्वारा तिब्बत से आयत किया तिब्बती सामान इस मेले में बेचा जाता है। वर्तमान में दिल्ली ,मेरठ और शहरी क्षेत्रों के व्यपारियों के यहाँ पहुंच कर आपने सामान  बेच रहें हैं।

जौलजीबी मेले का इतिहास –

यह ऐतिहासिक मेला शुरू करने का श्रेय स्व श्री गजेंद्र बाहदुर पाल जी को जाता है। उन्होंने ने सर्वप्रथम 1914 में ऐतिहासिक जौलजीबी मेले की शुरुवात की थी। 1974 तक पाल रियासत के वंशज इस मेले को चलाते रहे। सन 1975 से तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने इस मेले को अपने संरक्षण में ले लिया। उसी दिन से यह मेला नेहरू जी के जन्मदिन 14 नवंबर को मनाया जाने लगा। इसके बाद उत्तराखंड राज्य निर्माण के उपरांत 2007 से इस मेले का आयोजन पर्यटन व् संस्कृति  मंत्रालय  उत्तराखंड करवाता है।

जौलजीबी मेला
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कैसे पहुंचे जौलजीबी मेला –

पहाड़ी संस्कृति और प्रकृति के सानिध्य में समय बिताना चाहते हो तो, 14 नवंबर से 24 नवंबर के मध्य लगने वाला यह ऐतिहासिक मेला प्रकृति और संस्कृति को एक साथ देखने का अच्छा माध्य्म है। जौलजीबी जाने के लिए आप देश के किसी कोने से हल्द्वानी पहुंचकर हल्द्वानी से पिथौरागढ़ बस या टेक्सी के माध्यम से पहुंच सकते है। पिथौरागढ़ से ऐतिहासिक व् रमणीय जौलजीबी क़स्बा मात्र 68 किमी दूर है।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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