हिलजात्रा उत्सव उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले का प्रमुख उत्सव है। यह सोरघाटी में विशेषतः बजेटी, कुमोड़, बराल गावं, थरकोट, बलकोट, चमाली, पुरान, देवथल, सेरी, रसैपाटा में मनाया जाने वाला लोकनृत्य है। और कुछ परिवर्तनों के साथ हरिण चित्तल नृत्य के रूप में अस्कोट और कनालीछीना में मनाया जाता है। यह लोकनृत्य कृषि व्यवसाय से संबंधित होने के कारण इसमें अभिनय करने वालों का रूप भी उसी के अनुसार होता है। अर्थात इसमें कोई हल जोतते हुए बैल बनता है तो कोई हल जोतने वाला किसान ,कोई ग्वाला ,कोई मेड बांधने वाला तो कोई अन्य पशुओं का रूप धारण करते हैं।
विभिन्न पशुओं और पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता उन पात्रों के मुखौटे अपने चेहरे पर लगाते हैं। इसलिए हिलजात्रा को उत्तराखंड का प्रसिद्ध मुखौटा नृत्य भी कहते हैं। यह मुखौटे लकड़ी के बने होते हैं। अभिनय करने वाले लोग आधे अंग में केवल कच्छा पहन का बाकी शरीर में सफ़ेद मिट्टी पोत लेते हैं। उसपे काली सफ़ेद धारियां यान बूटें डाल लेते हैं। इस प्रकार का गेटउप लेकर लोग अलग -अलग अभिनय करते हैं।
कुमौड़ में हिलजात्रा का प्रारम्भिक स्थल कोट से तथा बजेटी में बिरखमचौक से हिलजात्रा का प्रारम्भ करके लोग मुख्य उत्सव स्थल तक ढोल-नगाड़ों के साथ नृत्य करते हुए, घोड़ा, बैलों की जोड़ी, हिरन, अड़ियल बैल के मुखौटे पहने, हाथ में सफेद मिट्टी लेकर सभी दर्शकों के चेहरों पर उसे पोतती हुई दुतारी एवं हुड़किया बौल के गायकों की टोली प्रवेश करती है। इसमें पर्वतीय कृषकीय वेषभूषा में कृषिपरक कार्यों का मनोरंजनात्मक प्रदर्शन एवं नृत्य व् अभिनय का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।
इसके प्रमुख क्षेत्र कुमौड़ गांव के संदर्भ में देखा जाता है कि वहां पर यह वहां के मैदान में स्थित लगभग सौ साल पुराने विशालकाय झूले के नजदीक उत्सव का आयोजन किया जाता है। लखिया भूत को लोग सती के दाह से सम्बद्ध भगवान् शिव के गण वीरभद्र का अवतार मानकर उसे अपने श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए हाथों में फूल, अक्षत लेकर खड़े रहते हैं।
अपराह्न में सर्वप्रथम मुखिया सहित गांव के सयाने लोग देवताओं के चिह्नों से अंकित लाल झंडो एवं स्थानीय वाद्यों के साथ वहां पर कोट (किले) से उत्सव स्थल तक आते हैं। इसके उपरान्त अनेक स्वांग भरने वाले युवक बैल, ग्वाले, धोबी, नाई, व्यापारी, मछुआरा आदि के वेशों में प्रवेश करके अपनी ऊटपटांग शारीरिक एवं वाचिक क्रिया क्लापों से वहां उपस्थित दर्शकों को हंसाकर उनका मनोरंजन करने की कोशिश करते रहते हैं।
यह कार्यक्रम काफी देर तक चलता रहता है। इसमें पुतरिया घुटनों तक अपनी धोती को समेटे पुतेर (धान के पौधों) की रोपाई करने वाली महिलाओं को देते रहने का अभिनय करती है। वे मिट्टी के ढेले फोड़ती हुई बीच-बीच में खेत के किनारे जाकर बच्चों को स्तनपान कराकर उन्हें सुलाने का भी अभिनय करती रहती हैं।
हलिया बैल को छोड़कर हुक्का पीता है। महिलाएँ कलेवा लेकर आती हैं और काम करने वालों को देती हैं। बीच में हरिण चित्तल का पात्र भी उछल-कूद करता हुआ दर्शकों का मनोरंजन करता रहता है। अन्त में किचिंत दूरी से नगाड़ों की ध्वनि सुनाई देने लगती है जो कि इस बात की संकेतक होती है कि अब इस उत्सव का प्रमुख पात्र लखियाभूत आ रहा है और उसके लिए मैदान खाली कर दिया जाय। उस समय रोपा लगाने वाली महिला पात्रों के अतिरिक्त अन्य सभी पात्र मैदान से बाहर हो जाते हैं। तब वहां पर नगाड़ों की ध्वनि के साथ प्रवेश करता है लखिया भूत।
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कौन है लखिया भूत, या लखियादेव (lakhiya bhoot ki kahani) –
लखिया भूत उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के उत्सव हिलजात्रा उत्सव का प्रमुख पात्र है। इसे भगवान शिव का अंश या उनका प्रमुख गण माना जाता है। कई लोग इसे भगवान् वीरभद्र का अवतार भी मानते हैं। इसका प्रवेश उत्सव के अंतिम भाग में होता है। हिलजात्रा उत्सव स्थल पर इसके आने का संकेत नगाड़ो की ध्वनि से दिया जाता है। इसका रूप बड़ा भयानक होता है इसलिए इसे लखिया भूत कहते हैं।
यह काले वस्त्रों में लम्बे काले बालों के साथ हाथों में काले -काले चवर लिए और गले में मोटे रुद्राक्ष की माला धारण किये उत्सव स्थल में प्रवेश करता है। दो वीर उसके कमर में बांधे रस्सों से उसे थामे रहते हैं। उस समय सभी दर्शक गण पुष्प अर्पित करके सुख समृद्धि की कामना करते हैं। लखिया भूत सभी श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देता हुवा उत्सव स्थल में धूमते हुए बहार निकल जाता है। और इसी के साथ इस उत्सव का समापन हो जाता है।
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हिलजात्रा उत्सव का इतिहास (Hill jatra was introduced) –
हिलजात्रा किसके द्वारा प्रारंभ की गई थी ? इसके इतिहास पर आधारित जनश्रुति इस प्रकार है। सोर घाटी पिथौरागढ़ में प्रचलित इस उत्सव के इतिहास के विषय में माना जाता है कि इस उत्सव का आधार नेपाल में प्रचलित यात्राएं महेन्द्रनाथ रथजात्रा, गायजात्रा, इन्द्रजात्रा, पंचाली भैरवजात्रा, गुजेश्वरी जात्रा, चकन देवजात्रा, घोड़ाजात्रा, बालजूजात्रा आदि हैं।
लोकश्रुति के अनुसार पिथौरागढ़ में इस हिलजात्रा उत्सव का प्रारम्भ राजा पिथौराशाही के समय में नेपाल की इन्द्रजात्रा (पुरातन इन्द्रध्वज यात्रा के अनुरूप) पर वहां से आनेवाले चार महर भाइयों के द्वारा कुमौड़ ग्राम में किया गया था। इसे प्रारम्भ करने वाले महर भाइयों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे बड़े वीर थे। जब वे यहां आये थे तो उस समय यहां पर एक नरभक्षी शेर का आतंक छाया हुआ था। राजा की ओर से इस हिंसक शेर को मारने वाले को मुंहमांगा पुरस्कार दिये जाने की घोषणा की गई थी। चारों महर भाइयों ने इसे मार डाला।
इस पर अपनी घोषणा के अनुसार राजा ने इन्हें चण्डाक में बुलाकर उनका भव्य सम्मान किया तथा उन्हें मनचाहा पुरस्कार मांगने को कहा। कहा जाता है इनमें से सबसे बड़े भाई कुंवर सिंह कुरमौर ने चण्डाक की चोटी पर खड़ा होकर चारों ओर देखकर कहा कि यहां से जितनी भूमि मुझे दिखाई दे रही है वह मुझे दे दी जाय।
अपने वचनानुसार राजा ने वह सारा क्षेत्र उसे दे दिया। माना जाता है कि कुमौड़ का यह नाम महर कुरमौर के नाम पर ही पड़ा है। अन्य भाईयों में से चहज सिंह ने चेंसर का, जाखन सिंह ने जाखनी का तथा बिणसिंह ने बिण का क्षेत्र मांग लिया था। अतः इन क्षेत्रों के नामों का आधार भी यही महर भाइयों के नाम माने जाते हैं।
हिल जात्रा के संदर्भ में एक अन्य जनश्रुति भी प्रचलित है। जिसके अनुसार एक बार जब ये महर भाई इन्द्रजात्रा के उत्सव के अवसर पर नेपाल गये हुए थे तो वहां पर उस समय बलि के लिए नियत भैंसे के सींग पीछे गर्दन तक लम्बे होने के कारण उसकी गर्दन को खुखरी के एक आघात से काटना असम्भव होने से सभी लोग असमंजस में थे। राजा स्वयं बड़े पशोपेश में था क्योंकि राजा के द्वारा ही इसे काटा जाना था। राजा को इस असमंजस की स्थिति में देखकर महर बन्धुओं ने कहा यदि उन्हें अनुमति दी जाय तो वे इसे एक झटके में ही काट सकते हैं।
इस पर राजा की अनुमति मिलने पर महर भाई ने भैंसे को सामने एक ऊंचे स्थान पर चढ़कर उसे हरी घास का एक मुट्ठा दिखाया। उसे खाने के लिए उसने ज्यों ही गर्दन ऊपर उठाई त्यों ही एक भाई ने नीचे से पूरे जोर के साथ खुखरी से आघात करके उसकी गर्दन को उड़ा दिया।
खुश होकर जब राजा ने उनसे पुरस्कार मांगने को कहा तो उन्होंने कहा कि हमें अपने क्षेत्र में हिलजात्रा उत्सव को मनाने की स्वीकृति के साथ इसमें प्रयुक्त किये जाने वाले मुखौटे भी प्रदान किये जांय। राजा ने खुश होकर उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। वे उन मुखौटों को लेकर कुमौड़ में आये और वहां पर आठूं पर्व के अगले दिन उन्होंने इस उत्सव को मनाया। तब से यहां तथा आस-पास के क्षेत्रों में इसे इस अवसर पर मनाया जाने लगा।
- संदर्भ – उत्तराखंड ज्ञानकोष ,प्रो DD शर्मा
- फोटो -साभार सोशल मीडिया
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