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देवप्रयाग का इतिहास और देवप्रयाग का प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर

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देवप्रयाग उत्तराखंड के टिहरी जिले में भागीरथी – अलकनंदा नदी के संगम पर स्थित है। देवप्रयाग ऋषिकेश से 70 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में स्थित है। 30°-8′ अक्षांश तथा 78 °-39′ रेखांश पर स्थित देवप्रयाग समुद्रतल से 1600 फ़ीट की उचाई पर बसा हुआ है। यह तीन पर्वतों दशरथाचल ,गर्ध्रपर्वत और नरसिंह पर्वत के मध्य ने स्थित है।

उत्तराखंड में पवित्र नदियों के संगमों पर पांच प्रयाग बने हैं , जिन्हें पंच प्रयाग कहते हैं। देवप्रयाग इन पंच प्रयागों में सबसे श्रेष्ठ और पहला प्रयाग है। देवप्रयाग का महत्व प्रयागराज के बराबर है।यहाँ का प्रसिद्ध शिलालेख जो यात्रियों की नामावली की सूचना देता है ।यह उत्तराखंड के ऐतिहासिक साक्ष्यों में प्रसिद्ध साक्ष्य है। विद्वानों ने इसे पहली या दूसरी शताब्दी का माना है।

यहाँ पर अलकनंदा और भागीरथी के संगम के बाद यह नदी देवप्रयाग से  आगे को गंगा नदी के रूप में बहती है। देवप्रयाग को गंगा की जन्मभूमि के रूप में भी जाना जाता है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी को स्थानीय लोग सास बहु नदियाँ भी कहते हैं। देवप्रयाग एक प्राकृतिक संपदा युक्त स्थल है। इसके पास ही डांडा नागराज मंदिर और चन्द्रबदनी मंदिर भी विशेष दर्शनीय हैं। देवप्रयाग का एक नाम सुदर्शन क्षेत्र भी है। इस क्षेत्र की एक खास विशेषता है,यहाँ कौवे नही दिखाई देते हैं। देवप्रयाग का विशेष आकर्षण यहां का रघुनाथ मंदिर है। इसकी चर्चा हम इसी लेख में आगे करेंगे।

देवप्रयाग का इतिहास –

देवप्रयाग को पुराणों में केदारखंड के सभी तीर्थों में उत्तम बताया गया है। केदारखंड के अनुसार यहाँ भगवान राम,लक्ष्मण और सीता ने निवास किया था। कहते हैं जब माँ गंगा धरती पर उतरी तो उनके साथ 33 करोड़ देवता भी आये उन्होंने देवप्रयाग को अपनी निवास स्थली बनाया।

देवप्रयाग का नाम कैसे पड़ा ? देवप्रयाग के नामकरण पर एक पौरणिक कथा प्रसिद्ध है-

कहते हैं, कि सतयुग में इस क्षेत्र में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। वह भगवान विष्णु का परम् भक्त था । उसने विष्णु जी की तपस्या करके ,उनसे आग्रह किया कि प्रभु आप यही रहें। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं त्रेता युग मे यहाँ आऊंगा। और यहाँ तप करके सदा के लिए बस जाऊंगा। और कालांतर में यह स्थान तुम्हारे नाम से जाना जाएगा। कहा जाता है,कि देवशर्मा नामक ब्राह्मण के नाम से इस जगह का नाम देवप्रयाग पड़ा।

भगवान राम से जुड़ा है देवप्रयाग का इतिहास –

देवप्रयाग क्षेत्र का भगवान राम से विशेष संबंध है। यह क्षेत्र भगवान राम की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। कहते हैं कि रावण की ब्रह्म हत्या दोष से बचने के लिए भगवान राम ने यहां तपस्या की थी, और विशेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। रावण जाती धर्म से ब्राह्मण होने के कारण, उसकी हत्या करके भगवान को भी ब्रह्मदोष लग गया था जिसके निवारण के लिए भगवान राम ने यहाँ तपस्या की और ब्रह्मदोष से मुक्त हुए।

भगवान राम का प्रसिद्ध मंदिर रघुनाथ मंदिर यहीं है। केदारखंड में भगवान राम ,लक्ष्मण और माता सीता सहित आने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है,कि जब प्रजा के आरोप लगाने पर , भगवान राम ने माता सीता का त्याग किया तब लक्ष्मण जी ,माता सीता को ऋषिकेश के आगे तपोवन में छोड़ कर चले गए,मान्यता है,कि जिस स्थान पर लक्ष्मण ने सीता को विदा किया वह देवप्रयाग से मात्र 4 किमी दूर है।

देवप्रयाग में पितृपक्ष में पिंड दान का विशेष महत्व है

श्राद्ध पक्ष में देवप्रयाग में पिंडदान करने का विशेष महत्व बताया गया है। यहाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग पिंडदान करने के लिए आते हैं। आनंद रामायण के अनुसार ,भगवान राम ने यहाँ ,श्राद्ध पक्ष में अपने पिता दशरथ का पिंडदान किया था। भगवान राम की इस तपस्थली में आज भी पितृपक्ष में यहाँ के पुजारी ,दशरथ जी को तर्पण करते हैं। कहते हैं कि नेपाली धर्मग्रंथ हिमवत्स में बताया गया है,कि देवप्रयाग में पितरों के तर्पण व पिंडदान का सर्वाधिक महत्व है। और भागीरथी नदी को पितृ गंगा भी कहा जाता है।

देवप्रयाग के मंदिर –

33 करोड़ देवताओं की निवास भूमि में बहुत मंदिर हैं। जिनके बारे सांशिप में जानकारी इस प्रकार है ।

रघुनाथ मंदिर देवप्रयाग उत्तराखंड

देवप्रयाग का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है यहां का रघुनाथ मंदिर। इस मंदिर की स्थापना मूलतः देवशर्मा नामक ब्राह्मण ने की थी। देवप्रयाग का नामकरण भी ,देवशर्मा के नाम पे हुवा है। मंदिर को वर्तमान रूप में आदिशंकराचार्य जी ने बनवाया था। आदिशंकराचार्य जी ने चार धाम की स्थापना के अलावा ,108 विश्व मूर्ति मंदिरों की स्थापना की जिनमे भगवान ने स्वयं प्रकट होकर उस स्थान को सिद्ध किया है। इन 108 मंदिरों में देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर, जोशीमठ का नरसिंह मंदिर और बद्रीनाथ मंदिर भी है।

रघुनाथ मंदिर के पीछे की शिलाओं पर कुछ तीर्थयात्रियों के नाम खरोष्टि लिपि में लिखे गए हैं। इन्हें दूसरी या तीसरी शताब्दी का माना गया है। मंदिर में अनेक शिलालेख और ताम्रपत्र इसकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। अनेक राजाओं ने इसके निर्माण में सहयोग किया। गढ़वाल के राजाओं के साथ साथ गोरखा सेनापतियों ने भी इस मंदिर के निर्माण में सहयोग किया। इसका उल्लेख मंदिर के मुख्यद्ववार पर है। 1803 ई में इस मंदिर का भूकंप द्वारा नष्ट होने पर दौलतराव सिंधिया ने इसका निर्माण करवाया था।

ऊँचे लंबे चबूतरों पर बनाया गया यह मंदिर बहुत सुंदर है। रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह के फर्श से मंदिर की शिखर तक की लंबाई लगभग 80 फ़ीट है। मंदिर के अंदर विष्णु भगवान की काले रंग की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति भक्तों की पहुँच से बाहर है। सभी भक्त बाहर के छोटे से सभामंडप क्षेत्र में खड़े होते हैं। शिखर पर लकड़ी की बनी विशाल छतरी है। इस छतरी को टिहरी की खरोटिया रानी ने बनवाया था। कुल मिला कर देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर द्रविड़ शैली में बना है।

इस मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना होती है। तथा वर्ष में 4 मेले भी लगते हैं – बसंतपंचमी , वैशाखी, रामनवमी और मकरसंक्रांति का मेला।

देवप्रयाग
देवप्रयाग का इतिहास

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भरत मंदिर –

रघुनाथ मंदिर के उत्तर में  आवादी समाप्त होने पर एक छोटा मंदिर है, इसको भरत मंदिर कहते हैं। कहते हैं कि ऋषिकेश में औरंगजेब द्वारा भरत मंदिर तोड़े जाने के खतरे के डर से वहाँ के महंत भरत मूर्ति को उठाकर यहाँ ले आये। खतरा दूर होने के बाद पुनः ऋषिकेश में स्थापित कर दिया गया। देवप्रयाग में जिस स्थान पर यह मूर्ति रखी गयी थी ,वहां एक छोटा मंदिर बना दिया गया।

वागीश्वर महादेव देवप्रयाग –

वगीश्वर पर बने शिव मंदिर को वागीश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के आधार पर इस स्थान पर माता सरस्वती ने भगवान भोलेनाथ की तपस्या करके संगीत विद्या प्राप्त की थी।

आदि विश्वेश्वर मंदिर देवप्रयाग –

देवप्रयाग में पांच शिवमंदिर विशेष हैं। चार मंदिर इस क्षेत्र के चार कोनो पर चार दिगपाल देवताओं के मंदिर  स्थित हैं। पांचवा मंदिर मुख्य मंदिर है, जो केंद्र में अधिष्ठाता के रूप में विराजित है। इसी मंदिर को आदि विशेश्वर मंदिर कहते हैं। इसके अलावा चार दिग्पालों के मंदिर हैं – धनेश्वर ,बिल्वेश्वर ,तुन्दीश्वर, और तांटेश्वर मंदिर।

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धनेश्वर मंदिर –

धनेश्वर मंदिर देवप्रयाग में अलकनंदा के बाएं तट पर बाह नामक स्थान से लगभग एक किलोमीटर दूर है। इस मंदिर के पास धनवती नामक नदी अलकनंदा में मिलती है। इसके बारे में किदवंती है,कि यहाँ धनवती नामक एक वैश्या ने शिव की तपस्या की थी। मृत्यु के बाद वह नदी में परिवर्तित हो गई। इस मंदिर को डंडिश्वर मंदिर भी कहते हैं। कहते हैं यहाँ दशायनी दनु ने 5500 वर्ष तक एक पैर पर खड़े होकर भगवान शिव की तपस्या की थी। ( Devpryaag in hindi )

बिल्वेश्वर मंदिर –

बिल्व तीर्थ पर स्थित शिवलिंग को  बिल्वेश्वर महादेव कहते हैं। यह शिवलिंग छोटी सी गुफा में अवस्थित है।

तुन्डिश्वर मंदिर –

तुंडी कुंड से ऊपर एक विशाल टीले पर तुन्दीश्वर मंदिर कहा जाता है। कहते हैं कि यहां तुंडी नामक भील ने भगवांन भोलेनाथ की उपासना की थी। और महादेव ने प्रसन्न होकर उसे अपने गण के रूप में स्वीकार कर लिया था।

तांटकेश्वर मंदिर देवप्रयाग –

इस मंदिर को स्थानीय भाषा मे टाटेश्वर भी कहते हैं। पौराणिक कथाओं के आधार पर, जब भगवान शिव माता सती की मृत देह लेकर घूम रहे थे, तब माता सती का तांतक ( कान का आभूषण ) इस स्थान पर गिर गया था। इसलिए यह स्थान तांटकेश्वर मंदिर कहलाया।

गंगा मंदिर –

देवप्रयाग के संगम से कुछ दूरी पर एक विशाल चपटी शिला पर छोटा सा मंदिर बना कर उसमे गंगा मूर्ति स्थापित की गई है।

क्षेत्रपाल मंदिर देवप्रयाग –

गरन्ध पर्वत पास रघुनाथ मंदिर के थोड़ा ऊपर  क्षेत्रपाल मंदिर है। ऐसे भैरव भी कहते हैं। इन्हें देवप्रयाग का रक्षक देवता माना जाता है।

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नागराजा मंदिर –

देवप्रयाग से 5 किमी दूर पहाड़ी पर नागराजा मंदिर है। यहां बैसाख 2 गते को मेला लगता है।

नरसिंह मंदिर देवप्रयाग –

नरसिंह मंदिर ,यहां के नरसिंह पर्वत पर स्थिति है।

महिषमर्दिनी मंदिर देवप्रयाग –

महिष्मर्दनी दुर्गा का मंदिर ,गरन्ध पर्वत की ढलान पर रोड से ऊपर अवस्थित है।

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अंत में :- मित्रों उपरोक्त लेख में हमने देवप्रयाग के बारे में, एक संशिप्त जानकारी प्रस्तुत की है । इसमे हमने ,देवप्रयाग के इतिहास मंदिरों के बारे में जानकारी साझा की है। इस लेख के लिए हमने स्थानीय पत्र पत्रिकाओं और डॉ सरिता शाह जी की पुस्तक उत्तराखंड के तीर्थ की सहायता ली है।

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