Home इतिहास कुली बेगार आंदोलन: उन्नीसवीं शताब्दी की अमानवीय प्रथा और उत्तराखंड का जनआंदोलन

कुली बेगार आंदोलन: उन्नीसवीं शताब्दी की अमानवीय प्रथा और उत्तराखंड का जनआंदोलन

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Coolie-Begar movement

कुली बेगार आंदोलन उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दौरान उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक ऐतिहासिक और प्रभावशाली जनआंदोलन था। यह आंदोलन जनता के शोषण और अन्याय के विरुद्ध खड़ा हुआ, जिसने न केवल स्थानीय समाज को एकजुट किया बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अपना योगदान दिया।

कुली बेगार प्रथा क्या थी?

ब्रिटिश शासन के दौरान, जब कोई अंग्रेज अधिकारी भ्रमण, शिकार, या शोध के लिए पहाड़ों में आता था, तो स्थानीय पटवारी और ग्राम प्रधान का दायित्व होता था कि वे उसके लिए कुली (मजदूर) की व्यवस्था करें।

  • ग्रामवासियों के नाम ग्राम प्रधान के रजिस्टर में दर्ज होते थे।
  • सभी ग्रामीणों को बारी-बारी से कुली का काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। इस कार्य के बदले उन्हें कोई
  • मजदूरी या पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था।

यह प्रथा “कुली बेगार” के नाम से जानी जाती थी। इसके अतिरिक्त, अंग्रेज अफसरों के खान-पान और रहने की सुविधाएँ भी ग्रामीणों को ही जुटानी पड़ती थीं। यह एक अमानवीय प्रथा थी, जिसने स्थानीय समाज को गहरे स्तर पर शोषित किया।

कुली बेगार प्रथा के खिलाफ आक्रोश :

शोषण की यह प्रथा स्थानीय समाज में गहरा आक्रोश पैदा कर रही थी। 1857 की क्रांति की चिंगारी कुमाऊं क्षेत्र में भी पहुँची, लेकिन अंग्रेजों ने इसे दबाने में सफलता पाई। इसके बाद भी जनता में विद्रोह की भावना बढ़ती रही।

1913 में, अंग्रेजों ने कुली बेगार को अनिवार्य कर दिया, जिससे विरोध की लहर फैल गई। जनता ने इसे अपनी अस्मिता और अधिकारों के खिलाफ सीधा हमला माना।

1913-1921: कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत :

1913 में, बद्रीदत्त पांडेय के नेतृत्व में सरयू नदी के किनारे “कुली बेगार” प्रथा के खिलाफ एक ऐतिहासिक प्रतिज्ञा ली गई। लोगों ने पवित्र सरयू जल हाथ में लेकर कसम खाई कि वे कुली बेगार प्रथा को नहीं मानेंगे। इसके बाद, आंदोलनकारियों ने कुली बेगार से संबंधित रजिस्टरों को फाड़कर सरयू नदी में बहा दिया। इस साहसिक कदम ने आंदोलन को और तीव्र किया।

महात्मा गांधी और कुली बेगार आंदोलन :

महात्मा गांधी इस आंदोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने अपने लेख “यंग इंडिया” में इसे स्थान दिया और इसे “रक्तहीन क्रांति” करार दिया। गांधी जी के आदर्शों से प्रेरित होकर कुमाऊं के नेताओं ने इस आंदोलन को व्यापक रूप दिया।

1920 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन, नागपुर में पंडित गोविंद बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पांडेय, हरगोविंद पंत, और विक्टर मोहन जोशी जैसे उत्तराखंड के नेताओं ने गांधी जी से चर्चा की और आंदोलन को मजबूत करने का संकल्प लिया।

कुली बेगार आंदोलन: उन्नीसवीं शताब्दी की अमानवीय प्रथा और उत्तराखंड का जनआंदोलन

14 जनवरी 1921: ऐतिहासिक दिन :

मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में सरयू और गोमती नदी के संगम पर, जिसे स्थानीय भाषा में बगड़ कहा जाता है, कुली बेगार आंदोलन का विधिवत आरंभ हुआ।

  • भगवान बागनाथ जी की पूजा के बाद, जनसमूह ने “कुली बेगार बंद करो” के नारों के साथ विशाल प्रदर्शन किया
  • आंदोलनकारियों ने जिलाधिकारी की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ाई जारी रखी।

कुली बेगार आंदोलन का प्रभाव :

इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव पड़ा:

1.कुली बेगार प्रथा का अंत: जनता के दृढ़ संकल्प और एकजुटता के कारण ब्रिटिश सरकार को इस प्रथा को समाप्त करना पड़ा।
2. बद्रीदत्त पांडेय को सम्मान: बद्रीदत्त पांडेय को उनकी नेतृत्व क्षमता के लिए “कुमाऊं केसरी” की उपाधि से नवाजा गया।
3. राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान:यह आंदोलन उत्तराखंड में स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।

उपसंहार :

कुली बेगार आंदोलन एक ऐतिहासिक जनआंदोलन था, जिसने उत्तराखंड के लोगों को शोषण के खिलाफ खड़ा होने की प्रेरणा दी। बद्रीदत्त पांडेय और अन्य नेताओं की दूरदर्शिता और जनता के साहस ने इसे सफल बनाया। यह आंदोलन न केवल स्थानीय स्तर पर बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी आजादी की लड़ाई का हिस्सा बन गया।

आज भी कुली बेगार आंदोलन एक उदाहरण है कि किस प्रकार संगठित जनशक्ति अन्याय और शोषण को समाप्त कर सकती है।

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