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बिमाता / बिमाई – पहाड़ में नवजात शिशुओं की रक्षक माता !

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दुनिया में सभी मानव जातियों की तरह हिमालयी जनजीवन कई सामाजिक व् सांस्कृतिक मान्यताएं मानी जाती हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड व् हिमालयी क्षेत्रों में भी अलग अलग मान्यताएं मानी जाती हैं। उनमे से एक मान्यता हिमालयी क्षेत्रों नवजात शिशुओं को लेकर मानी जाती है। पहाड़ों में जब नवजात शिशु (6 माह से छोटे) सुप्तावस्था अथवा जागृत अवस्था में बिना किसी कारण मुस्कराते हैं या रोते हैं , तो बड़े बुजुर्ग कहते हैं उन्हें बिमाता या बिमाई हँसा या रुला रही है।

पहाड़ी समाज में यह मान्यता रही है कि नवजात शिशुओं के साथ बिमाता नामक शक्ति रहती है ,जो बच्चों की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करती है। और शिशुओं  का मनोरंजन करती है उन्हें हसाती है या रुलाती है। कई लोग मानते हैं 6 माह तक शिशुओं को अपने पूर्व जन्म की याद रहती है ,इसलिए वे अपने पूर्व जन्म की यादों में मुस्कराते या रोते हैं। उनकी इस क्रिया को या इस क्रिया कराने वाली को बिमाता कहते हैं।

बिमाता / बिमाई

इस प्रकार के विधिमाता / बिमाई के सहचर्य की धारणा  हिमालयी क्षेत्र के अन्य समाजों में पायी जाती है। हिमांचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में यह मान्यता मानी जाती है। वहाँ संतान के जन्म पर बिहिमाई / विधिमाता का पूजन किया जाता है। उत्तराखंड के दक्षिण -पूर्वी क्षेत्र के निवासियों थारू जाती के लोगो में नवजात शिशु की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा के लिए प्रसूति गृह या जहाँ प्रसूता रहती है ,वहां बेमइया या विमाता का चित्रांकन किया जाता है।

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बिमाता का रेखांकन तो नहीं किया जाता है ,लेकिन यह मान्यता है कि जब तक शिशु सांसारिक व्यक्तियों या सांसारिक वस्तुओं के प्रति सचेत होता है , तब तक शिशु बिमाता के सम्पर्क में रहता है।

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नोट-

  • हिमालयी व् थारू संदर्भ के लिए उत्तराखंड लोकजीवन एवं लोक संस्कृति किताब का सहयोग लिया गया है।
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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