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बल्दिया एकास के रूप में भी मनाई जाती है कुमाऊं में हरिबोधनी एकादशी !

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उत्तराखंड का समाज मुख्यतः कृषक व् पशुपालक ही रहा है। आदिकाल से ही उत्तराखंड के निवासी मुख्यतः प्रकृति प्रेमी रहे हैं। पहाड़ की सीढ़ीदार खेतों और जल जंगल के बाद पशु उत्तराखंडियों की अमूल्य संपत्ति रहे हैं। पहले से ही दुधारू गाय /भैंस के साथ बैलों की जोड़ी का पहाड़ियों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।

वर्तमानं में पहाड़वासियों ने पशुपालन थोड़ा कम कर दिया है। लेकिन अधिकतर लोग अभी भी अपनी पारम्परिक जीवन शैली अपनाये हुए हैं। पशुओं के लिए अगाध स्नेह होने के कारण पहाड़वासियों ने अपने और प्रकृति के साथ -साथ पशुओं के लिए भी कई लोकोत्सव बनाये हैं। जिनमे खतड़ुवा ,ईगास ,बल्दिया एकास आदि लोकोत्सव प्रमुख हैं।

हरिबोधिनी एकादशी या कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जहाँ उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में ईगास पर्व मानते हैं, जिसमे मूलतः दिन में पशुओं की सेवा की जाती है। रात को पारम्परिक दीवाली के रूप में भैल्लो खेलते हैं। इसी प्रकार हरिबोधनी एकादशी के उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में बल्दिया एकास नामक लोकोत्सव के रूप में मनाई जाती है। इस दिन बैलों के हल जोतने की छुट्टी रहती है।

इस दिन बैलों को अच्छा भोजन और अच्छी ताज़ी घास दी जाती है। उनके सींगों में तेल से मालिश की जाती है। उनके सींगो को फूल मालाओं से सजाया जाता है। इस दिन सभी गाय ,बैलों को जौ के पिसे हुए पेड़े खिलाये जाते है। इस दिन उत्तराखंड के जौनपुर क्षेत्र में भी अपने पशुओं की सेवा की जाती है, उन्हें दही चावल खिलाये जाते हैं।

बल्दिया एकास
फोटो साभार -फेसबुक

अतः कह सकते हैं कि हरिबोधनी एकादशी के दिन सम्पूर्ण उत्तराखंड में पशुओं को समर्पित लोकोत्सव मनाये जाते हैं। जिनके नियम व् परम्पराएं स्थानीय स्तर पर अलग – अलग होती हैं।

इसके अतिरिक्त कुमाऊं क्षेत्र में  बूढ़ी दीवाली के रूप में भी मनाई जाती है। इस दिन दरिद्रता के प्रतीक भुईयां को बाहर निकाला जाता है।

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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