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एक कौए के नौ कौवे, कुमाउनी लोक कथा | एक कवोक नौ काव

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एक कौए के नौ
एक कौए के नौ

एक कौए के नौ कौवे एक प्रसिद्ध कुमाउनी लोक कथा है।

जनज्यूड़ा गांव में एक खीम सिंह नामक बड़े सीधे -साधे व्यक्ति थे। उन्हें प्यार से लोग खिमदा करके बुलाते थे। वे सुबह दिशा खुलने से पहले, उठ जाते थे। हाथ में लोटा लेकर ,कान में जनेऊ लपेट कर वे दूर जंगल की नित्यकर्म हेतु जाते थे। फिर नाह धोकर  दो तीन घंटे तक पूजा करते थे।

एक दिन जब अँधेरा ही था ,खिमदा हाथ में लोटा लेकर नित्यकर्म करने जंगल की ओर गए। जब एक झाड़ी की ओट में  बैठ कर पाखाना करने लगे तो वही एक कौए का पंख गिरा था ,उन्होंने कौए के पंख ऊपर मल कर दिया। मल करने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो ,उनके मल में कौए का पंख था। उन्होंने पहले ये पंख नहीं देखा इसलिए वे चिंता में पड़ गए।

घर आके उन्होंने अपनी घरवाली को कहा , ” हैं वे आज के बात हैनेलि  ? म्यर गु मे कावो पंख निकलो !!”  उनकी धर्मपत्नी को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुवा। स्त्री के पेट में बात कहाँ पचने वाली ठैरी। .. उसने पड़ोस में जाकर अपनी दीदी को कहा , ” अवे दीदी !! आज तुमर देवर ज्यू पेट में बे एक काव निकलो बलि !! के हैनोल !!! उसकी जेठानी दौड़कर बगल में रमदा के घर गई और उनकी घरवाली से बोली , ” है दीदी तुमुल सुणो !! म्यर देवरज्यू पेटम बे तीन काव निकली बलि आज !!”

रमदा की पत्नी मालबाखेई गई उसने वहां बता दिया कि खिमदा के पेट में 6 कौवे निकले बल !!ऐसे ही  बात  फैलते – फैलते आस पास के गावों तक पहुंच गई और ,और एक कौए से नौ कौए बन गए। आस पास के गावों में चर्चा होने लगी की जनज्यूड़ा के खीम सिंह के पेट से नौ कौए निकले …

एक दिन क्षेत्र की स्थानीय बाजार में किसी बुजुर्ग ने खिमदा को पूछ ही लिया , ” अरे खिमूवा !! तेरे पेट में से 9 कौवे निकले बलि !! अब ठीक है  ……..!!!  खिमदा को शरम और आश्चर्य के मारे कुछ कहना नहीं आया। वो चुप -चाप सर झुका कर घर को रास्ता लग गए  ………..

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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।

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