Home इतिहास तीलू रौतेली – उत्तराखंड की वीरांगना की कहानी

तीलू रौतेली – उत्तराखंड की वीरांगना की कहानी

तीलू रौतेली की लोक गाथा

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तीलू रौतेली

तीलू रौतेली गढ़वाल की एक वीरांगना कन्या थी, जो मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में युद्ध में कूद पड़ी। और बाइस वर्ष की आयु तक सात युद्ध लड़ चुकी थी। सम्भवतः तीलू  विश्व की सबसे कम उम्र की वीरांगना थी जिसने अपने छोटे से जीवन में सात युद्ध जीते। Teelu Rauteli को गढ़वाल की लक्ष्मीबाई भी कहते हैं। तीलू रौतेली का असली नाम तिलोत्तमा देवी था। तीलू रौतेली पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट के गुराड गावं की निवासी थी। इनका जन्म 8 अगस्त 1663 में हुवा था। इनके पिता का नाम  भूप सिंह रावत और माता का नाम मैनावती देवी था। भूप सिंह रावत गढ़वाल के राजा मानकशाह के सरदार थे।

गढ़वाल के पूर्वी सीमांत गावों में ,कुमाउनी सीमांत उपत्यकाओं में बसे कैंतुरा (कत्यूरा) लूटपाट के इरादे से हमला करते रहते थे। एक बार जब कत्यूरी शाशक धामदेव ने खैरागढ़ पर हमला किया तो मानकशाह गढ़ की रक्षा का भार अपने सरदार भूपसिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूपसिंह ने आक्रमणकारी कत्यूरियों का डटकर मुकाबला किया। सराई खेत में कत्यूरियों तथा गढ़वाली सैनिकों के बीच घमासान युद्ध हुआ। भूपसिंह अपने दो बेटों, भगलू और पतवा के साथ वीरगति को प्राप्त हो गया। उस समय में गढ़वाल के पूर्वी सीमान्त के गांवों पर कुमाऊं के पश्चिमी क्षेत्रों के सशत्र कैंतुरा (कत्यूरा) वर्ग के लोग निरन्तर छापा मारकर लूटपाट करते रहते थे।

लूट-पाट करने वाले कैतुरों द्वारा उत्पन्न इसी अशान्त स्थिति में एक बार जब कांडा का वार्षिक लोकोत्सव होने वाला था तो तीलू ने अपनी मां से उसमें जाने की इच्छा व्यक्त की। मेले की बात सुनकर उसकी मां को कैतुरे आक्रमणकारियों के साथ मारे गये अपने पति व दो पुत्रों की याद आ गई और उसने अपनी पुत्री तीलू से, जो कि अभी केवल 15 साल की थी, कहा, बेटी आज यदि मेरे पुत्र जीवित होते तो एक न एक दिन वे इन कैतुरों से अपने पिता की मृत्यु का अवश्य बदला लेते।

मां के उन मर्माहत वचनों को सुनकर तीलू ने उसी समय कठोर निर्णय कर लिया कि वह अवश्य कैतुरों से इसका बदला लेगी और खैरागढ़ सहित अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को इन आक्रमणकारियों से मुक्त करायेगी। इसलिए उसने अपने आस-पास के सभी गांवों में घोषणा करवा दी कि इस वर्ष कांडा का उत्सव नहीं, बल्कि आक्रमणकारी कैतुरों का विनाशोत्सव होगा उसके लिए सभी युवा योद्धाओं को इसमें सम्मिलित होना है। उसकी इस घोषणा पर क्षेत्र के सभी युवक और योद्धा इसके लिए तैयार हो गये।

नियत दिन पर उनका नेतृत्व करने के लिए वीरांगना तीलू योद्धाओं का बाना पहनकर व साथ में अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी घोड़ी बिंदुली पर सवार होकर आक्रमणकारी कैतुरों का प्रतिकार करने के लिए निकल पड़ी और उसके साथ चल पड़े उसके रणबांकुरे भी। उसके नेतृत्व में सर्वप्रथम उन्होंने खैरागढ़ के उस किले को उन आक्रमणकारियों से मुक्त कराया जो कि उस पर अपना अधिकार जमाये बैठे थे। इसके बाद उसने कालीखान पर अपना कब्जा करने के इरादे से कालीखान की ओर बढ़ते हुए कैतुरों का पीछा करके उन्हें वहां से भगाया।

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इसके बाद वह लगातार अगले सात वर्षों तक अपने क्षेत्र को इन लुटेरों और आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिए निरन्तर संघर्ष करती रही। इस कालावधि में उसने अपनी सैन्य टुकड़ियों का सफल नेतृत्व करते हुए अपने आसपास के क्षेत्रों-सौन, इड़ियाकोट, भौन, ज्यूंदालगढ़, सल्ट, चौखुटिया, कालिकाखान, वीरोखाल आदि को इन आक्रमणकारियों एवं लुटेरों के चंगुल से मुक्त कराकर वहां पर शान्ति स्थापित कर दी। इतने लम्बे समय तक संघर्षरत रहने तथा अपनी सीमा से शत्रुओं को खदेड़ने के उपरान्त बीरोखाल पहुंचने पर उसने कुछ दिन विश्राम करने के लिए अपना पड़ाव डाला और कुछ दिन वहां पर विश्राम करने के बाद अपने सैनिक दल के साथ कांडा के लिए प्रस्थान कर दिया।

इस क्रम में जब वह तल्ला कांडा में नयार के पास से गुजर रही थी तो उसके मन में आया कि वह वहां पर नयार में स्नान कर ले। उसने एक स्थान पर अपने प्रस्थान को रोककर सैनिकों को विश्राम का आदेश दिया और स्वयं किचिंत दूरी पर एकान्त पाकर नदी में स्थान करने लगी। इस प्रकार जब वह एकान्त में अकेले स्नान कर रही थी तो मौका पाकर उसके
पास ही एक झाड़ी में छिपे हुए एक कैंतुरा सैनिक, रामू रजवार, ने अपने हथियार से उस पर प्रहार कर दिया और उस वीरांगना के प्राण हर लिए। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान लड़ती-लड़ती वह मर्दानी वीरवाला बाईस साल की उम्र में अपना अदम्य पराक्रम दिखाकरगढ़वाल के इतिहास में अपना नाम अमर कर गयी।

“खूब लड़ी मर्दानी वह तो कांडा वाली रानी थी।”

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