उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी में हर वर्ष आयोजित होने वाला माघ मेला उत्तरकाशी (बाड़ाहाट कु थौलू) न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि इसका ऐतिहासिक महत्व भी गहरा है। यह मेला कई मायनों में खास है और इसकी परंपराएँ आज भी जीवित हैं। इस लेख में हम उत्तरकाशी के माघ मेले के धार्मिक और ऐतिहासिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे और यह जानेंगे कि कैसे यह मेला भारतीय संस्कृति और व्यापार इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।
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उत्तरकाशी का माघ मेला: धार्मिक दृष्टिकोण से
उत्तरकाशी का माघ मेला धार्मिक आस्थाओं का एक अभिन्न हिस्सा है। यह मेला महाभारत काल से जुड़ा हुआ है और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पांडवों ने अपने वनवास के दौरान यहां आकर पूजा अर्चना की थी। माघ मेला का आयोजन बाड़ागडी पट्टी के अराध्य देव, हरिमहाराज की पूजा अर्चना के साथ होता है, और श्रद्धालु इस दौरान विशेष अनुष्ठान करते हैं।
इस मेले की एक विशेषता है सीटी बजाने की परंपरा। मान्यता है कि बिना सीटी बजाए हरिमहाराज अपने पाश्वा पर अवतरित नहीं होते। ग्रामीण श्रद्धालु सीटी बजाकर अपने देवता को प्रसन्न करते हैं, और यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र के सभी सम्मानित देवों एवं उनकी देवडोलियों का आगमन इस मेले में होता है। सभी देव माघ का धार्मिक स्नानं करके अपने अपने सम्मानित क्षेत्रों को जाते हैं।
माघ मेला उत्तरकाशी : ऐतिहासिक दृष्टिकोण :
उत्तरकाशी का माघ मेला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह मेला भारत और तिब्बत के बीच व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है। स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व, तिब्बत के व्यापारी इस मेले में अपनी वस्तुएं बेचने के लिए उत्तरकाशी आते थे। इन व्यापारियों के द्वारा बेचे जाने वाले सामान में सेंदा नमक, ऊन, सोना, जड़ी-बूटियाँ, गाय, घोड़े आदि शामिल थे।
उमा रमण सेमवाल, इतिहासकार के अनुसार, इस मेले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा व्यापार था, जिसमें तिब्बती व्यापारी उत्तरकाशी से धान, गेहूं और अन्य सामान लेकर वापस जाते थे। इस मेले में टिहरी और उत्तरकाशी के ग्रामीण अपने देवताओं के साथ आते थे, गंगा में स्नान करते थे और साथ ही खरीदारी भी करते थे।
माघ मेले का पौराणिक नाम और व्यापारिक महत्व :
उत्तरकाशी का माघ मेला पौराणिक रूप से “बाड़ाहाट का थौलू” के नाम से जाना जाता है। “बाड़ाहाट” का अर्थ है “बड़ा बाजार”, जो उस समय के व्यापारिक गतिविधियों को दर्शाता है। यहाँ पर तिब्बती व्यापारी अपना माल लेकर आते थे और भारतीय व्यापारी उन्हें स्थानीय उत्पाद बेचते थे। मेला एक माह तक चलता था और यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मेला बन चुका था।
इतिहासकार उमा रमण सेमवाल के अनुसार, इस मेले के दौरान राजशाही का भी हस्तक्षेप था। राजशाही के समय तिब्बती व्यापारियों का हिसाब-किताब रखने के लिए मुखबा निवासी पंडित विद्यादत्त सेमवाल जिम्मेदार थे। वे टिहरी राज दरबार तक व्यापारी सामान पहुँचाते थे और इस दौरान तिब्बत से आने वाले व्यापारियों के माल का हिसाब रखते थे।
माघ मेला उत्तरकाशी : 1962 के बाद का बदलाव :
1962 तक, तिब्बत से आने वाले व्यापारी इस माघ मेले का हिस्सा बने रहते थे, लेकिन जब भारतीय सीमा पर प्रतिबंध लगाए गए, तो तिब्बती व्यापारी इस मेले में आना बंद हो गए। हालांकि, इसके बावजूद माघ मेले का आयोजन आज भी जारी है, और इसकी धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता को बनाए रखा गया है।
निष्कर्ष :
उत्तरकाशी का माघ मेला धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह मेला भारतीय संस्कृति और व्यापार के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत काल से जुड़े इस मेले ने समय के साथ अपना महत्व बनाए रखा है। सीटी बजाने की परंपरा और व्यापारिक गतिविधियों के कारण यह मेला उत्तरकाशी की सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखे हुए है।
इस प्रकार, उत्तरकाशी का माघ मेला न केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि यह भारतीय इतिहास और संस्कृति का अद्वितीय उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। यदि आप भी उत्तरकाशी में इस मेले का अनुभव करने का सोच रहे हैं, तो यह यात्रा आपके लिए न केवल धार्मिक, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी बहुत समृद्ध साबित होगी।
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