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खुदापूजा : उत्तराखंड का रहस्यमयी धार्मिक उत्सव, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं!

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खुदापूजा

उत्तराखंड (Uttarakhand Itihas) में अनेक लोकदेवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि यहाँ ‘खुदापूजा’ नामक एक अल्पज्ञात लेकिन अनोखी पूजा भी होती है? यह रहस्यमयी अनुष्ठान पिथौरागढ़ जनपद की सीमांत तहसील मुनस्यारी के कुछ गाँवों में विशेष रूप से मनाया जाता है। खास बात यह है कि यह पूजा भगवान शिव के अलखनाथ रूप की आराधना के रूप में होती है, लेकिन इसे ‘अलखनाथ पूजा’ के बजाय ‘खुदापूजा’ कहा जाता है।

खुदापूजा का अनूठा अनुष्ठान – मूर्ति नहीं, केवल आस्था !

डा. निवेदिता (2004:138-41) के अनुसार, खुदापूजा के देवस्थल में किसी मूर्ति की स्थापना नहीं होती! यहाँ केवल खुली चारदीवारी होती है, जिसके भीतर एक मीटर गोलाई का गर्त बना होता है, जिसे ऊपर से एक शिला ढकती है। इसे ‘अलखनाथ का स्थल’ माना जाता है। श्रद्धालु अपने घरों से लाई गई अलखनाथ की रजत प्रतिमाओं को यहाँ रखकर उनकी पूजा करते हैं। पूजा समाप्त होने के बाद यह स्थल पुनः बंद कर दिया जाता है, और इसे केवल अगली पूजा के दौरान ही खोला जाता है।

रहस्यमयी शपथ – आस्था का प्रतीक !

खुदापूजा से जुड़ी सबसे रहस्यमयी प्रथा यह है कि लोग अपने प्रण या वचन को साक्षी मानने के लिए इस स्थल को सूंघकर शपथ लेते हैं। यह चार दिवसीय पूजा होती है, जिसमें विशेष आरती संपन्न होती है। गोल गर्त के चारों ओर 22, 9, 7, और 5 बत्तियों के दीपक जलाए जाते हैं, और आरती पहले दिन एक बार और चौथे दिन चार बार की जाती है। इस दौरान देवता के डोले को पैय्यां वृक्ष की टहनियों से सजाया जाता है, और इसे ले जाते समय पुजारी विशेष रीति से इसकी पूजा करते हैं।

पशुबलि का महत्व – देवता हैं निरामिष, लेकिन गणों के लिए बलि अनिवार्य !

खुदापूजा में ब्राह्मणों की भूमिका केवल शुद्धिपाठ तक सीमित होती है। सभी प्रमुख अनुष्ठान मेहता उपजाति के पुजारी संपन्न करते हैं। यह पूजा 5, 7, या 9 वर्षों के अंतराल पर आयोजित की जाती है। दिलचस्प बात यह है कि देवता स्वयं तो निरामिषभोजी माने जाते हैं, लेकिन उनके ‘आणबाण’ (गण) के लिए बकरों की बलि दी जाती है। हर परिवार कम से कम तीन बकरों की बलि देता है।

 खुदापूजा का ऐतिहासिक रहस्य – नामकरण की अनूठी कहानी!

मुगलकाल में खुदापूजा को लेकर एक दिलचस्प जनश्रुति प्रचलित है। माना जाता है कि इस पूजा को कई बार विध्वंस करने का प्रयास किया गया था। ऐसे आक्रमणों से बचने के लिए देवता की मूर्ति को गर्त में छिपाकर यह कहा जाता था कि यहाँ ‘खुदा’ की पूजा हो रही है। यही कारण है कि इसका नाम ‘खुदापूजा’ पड़ा और इसका देवस्थल एक दरगाह जैसी खुली चारदीवारी में रखा गया। यह रहस्य आज भी इस पूजा को इतिहास और संस्कृति के पन्नों में अनूठा स्थान प्रदान करता है।

 खुदापूजा और अन्य प्राचीन धार्मिक परंपराएँ

मुनस्यारी के अलावा, काली कुमाऊं के सिरतोली और कानाकोट गाँवों में ‘खोदाई’ नामक देवता की पूजा की जाती है। डा. रामसिंह (रागभाग, पृ. 111-12) के अनुसार, ‘खुदा’ शब्द वैदिक देवता ‘स्वधा’ का प्राचीन फारसी (अवेस्ता) भाषा का समानार्थी है। कुरान मजीद में ‘खुदा’ शब्द का उल्लेख नहीं है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह शब्द इस्लाम से पहले ही हिमालयी क्षेत्रों में पहुँच चुका था।

टिहरी गढ़वाल के रवाँई क्षेत्र में हरिजनों द्वारा ‘खोदाई’ अनुष्ठान आयोजित किया जाता है, जिसमें केवल असवर्णों की भागीदारी होती है। यह अनुष्ठान तीन रात्रियों तक चलता है, और चौथे दिन सूअर की बलि देकर इसका समापन किया जाता है। हालांकि, वर्तमान में इस अनुष्ठान से जुड़े कई कठोर नियम शिथिल होते जा रहे हैं।

संदर्भ: यह जानकारी भरा लेख  प्रो. डी. डी. शर्मा, उत्तराखंड ज्ञानकोश पुस्तक से लिया गया है। 

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