उत्तराखंड देवभूमी है, यह सर्वविदित है। उत्तराखंड बड़े बड़े सन्यासियों योगी और सिद्ध महात्माओं की तपस्थली रही है। आज हम अपने इस लेख में आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही पवित्र स्थान काकड़ीघाट के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं, जहाँ स्वामी विवेकानंद जी को ज्ञान प्राप्त हुआ ।और प्रसिद्ध सिद्ध महात्मा श्री सोमवारी जी महाराज ने यहाँ अपना अमूल्य समय बिताया, और जप तप किया।
काकड़ीघाट उत्तराखंड के नैनिताल जिले में , अल्मोड़ा जिले के बॉर्डर पर स्थित है। भवाली भीमताल , हल्द्वानी रोड पर , हल्द्वानी से लगभग 66 किलोमीटर दूर कोसी ( कौशिकी ) नदी और सील नदी के संगम पर बसा यह पवित्र स्थल, अनेक सिद्ध योगियों और महापुरुषों की तपस्थली रहा है। यहाँ पीपल के वृक्ष के नीचे , स्वामी विवेकानंद जी को ज्ञान प्राप्ति हुई थी। सोमवारी महाराज, गुसाईं महाराज, हैड़ाखान बाबा, बाबा हर्षदेवपुरी जी तप जप के कारण काकड़ीघाट की यह भूमि , पवित्र भूमि बन गई है।
अब हम आपको संशिप्त में सभी महापुरुषों के प्रसंगों को बताने की कोशिश करेंगे , जो इस पावन भूमि से ज़ुड़े हैं।
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स्वामी विवेकानंद जी को काकड़ीघाट में ज्ञान की प्राप्ति –
अगस्त 1890 में स्वामी विवेकानंद जी को अल्मोड़ा नैनिताल के मध्य स्थिति काकड़ीघाट नामक स्थान पर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। बात 1890 की है , जब स्वामी विवेकानंद अपने शिष्य स्वामी अखंडानंद के साथ बेल्लूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए साधु नरेंद्र के रूप निकले थे । हिमालय यात्रा के दौरान जब स्वामी विवेकानंद , साधु नरेंद्र के रूप में नैनिताल से अल्मोड़ा के लिए चले थे।
अल्मोड़ा यात्रा के दौरान नैनिताल अलमोड़ा बॉर्डर पर कौशिकी , कोशी नदी और सील नदी के संगम पर काकड़ीघाट नामक स्थान पर स्वामी विवेकानंद , झरने के किनारे ठहरे, स्नानादि से निपट कर वहाँ स्थित पीपल के पेड़ के नीचे , ध्यान के लिए बैठ गए।
लगभग घंटे भर बाद अपने शिष्य अखंडनाथ से कहा, इस पेड़ के नीचे एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया। मुझे समष्टि और व्यष्टि (अणु ब्रह्मांड और विश्व ब्रह्मांड )दोनो एक ही नियम से परिचित होते हैं। उनके शिष्य अखंडनाथ के पास रखी हुई नोट बुक में वह घटना बंगाली भाषा में लिख कर रख ली।
स्वामी विवेकानंद जी के इस उद्गार का वर्णन विस्तार से “अल्मोड़ा का आकर्षण ” नामक महामंडल पुस्तिका में पृष्ठ 5 में समझया गया है। “आज मेरे जीवन की एक बहुत ही गूढ़ समस्या का समाधान इस पवित्र स्थान पर हो गया है। “उन्होंने लिखा है, जिस प्रकार जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवर्त्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा अर्थार्त परब्रह्म चेतना मई जगत में स्थित है। यह कोई कल्पना नही है।
इन्ही , एक प्रकृति और आत्मा का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति हैं। आत्मा और परमात्मा अभिन्न हैं। उन्हें केवल मानसिक विश्लेषण द्वारा अलग किया जा सकता है। जिस प्रकार शब्द के बिना अर्थ की कल्पना नही की जा सकती । ठीक उसी प्रकार परमात्मा के बिना आत्मा की कल्पना नही हो सकती है। उन्होंने आगे कहा, ” विश्वात्मा का यह युगल रूप ( आत्मा और परमात्मा ) अनादि है।
काकड़ीघाट में पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त करने के बाद स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा गए। वहाँ जाते समय कर्बला का एक प्रसंग है, कि स्वामी विवेकानंद अलमोड़ा को जा रहे थे, तो कर्बला के पास , भूख प्यास की अधिकता के कारण उनको चक्कर आने लगे। तब वहीं पास रहने वाले मुस्लिम फकीर जुल्फिकार ने स्वामी विवेकानंद को पानी व पहाड़ी ककड़ी खिलाई।
स्वामी विवेकानंद जी का अलमोड़ा से विशेष संबंध रहा है। स्वामी विवेकानंद ने 2 बार अल्मोड़ा की यात्रा की है। और अपने जीवन मे पहली बार जनसमूह को अल्मोड़ा में संबोधित किया है।उन्होंने 11 मई 1897 के दिन खजांची बाजार में पहली बार जनसमूह को संबोधित किया था। स्वामी विवेकानंद जी की एक प्रसिद्ध पुस्तक भी है, जिसका नाम है, कोलम्बो से अल्मोड़ा के लिए व्याख्या। काकड़ीघाट को स्वामी विवेकानंद जी की बोध गया कहा जाता है।
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बाबा हर्षदेवपुरी जी ( गुसाईं बाबा ) का प्रसंग
काकड़ीघाट में चन्द्रवंशीय राजाओं के समय एक प्रसिद्ध सिद्ध बाबा रहते थे, जिनका नाम था बाबा हर्षदेवपुरी । बाबा हर्षदेवपुरी की तपस्थली काकड़ीघाट । बाबा हर्षदेवपुरी शंकराचार्य मत का पालन करने वाले बाबा थे। वे तत्कालीन राजा देवीचंद से बहुत स्नेह करते थे। उनको प्यार से देबुवा कहकर बुलाते थे।
उनको गुसाईं बाबा भी कहते थे। गुसाईं बाबा, हर्षदेवपुरी काकड़ीघाट में ही तप करते थे। अल्मोड़ा के राजा देवीचंद के गुरु थे। एक बार जाड़ों में भाभर जाने की आज्ञा लेने , राजा देवीचंद बाबा के पास अपने दो सिपल्हारों के साथ पहुचे।जब राजा ने बताया कि वे भाभर जा रहे, तो बाबा बोले इस साल वहाँ मत जा, यही काकड़ीघाट में बैठ, मेरे साथ धूप का आनन्द ले।
इस साल तेरा भाभर जाना ठीक नही है। मगर राजा नही माने, तो उन्होंने राजा को अपनी तप की शक्ति से जल अभिमंत्रित किया, और राजा को पीने को बोला, तो राजा उस जल को पिये बिना भाभर ( वर्तमान मैदानी क्षेत्र, रुद्रपुर, काशीपुर हल्द्वानी ) को चले गए। राजा के साथ गए मंत्री संतरी ने भाभर में धोखे से राजा की हत्या कर दी।
इधर गुसाईं बाबा को सब कुछ पता चल गया था। उन्होंने दुखी होकर अपने लिए समाधि बनवा ली, राजा के मरने से पहले ही बाबा को पता था, कि राजा नही बचेंगे । गुसाईं बाबा ने बहुत कोशिश की राजा को रोकने की , किन्तु राजा नही माने और मारे गए। गुसाईं बाबा की यह समाधि अभी भी काकड़ीघाट में स्थित है।
काकड़ीघाट , सोमवारी बाबा जी का प्रसंग –
सोमवारी बाबा का जन्म पिंडददनखाँ (आधुनिक पाकिस्तान ) में 1860 के आस पास माना जाता है। सोमवारी बाबा (somvari baba ) के घर मे कोई कमी नही थी। लेकिन बाल्यकाल से ही बाबा का मन सांसारिक मोह माया में नही लगता था। बाबा का सन्यासी नाम श्री परमानंद हरिहर दास बताया जाता है।
सोमवार के दिन भंडारे करने के कारण बाबा का नाम सोमवारी बाबा ( Somvaari baba ) पड़ा। सोमवारी बाबा प्रत्येक सोमवार को आपने आश्रम में भंडारे करते थे। इसलिए उनका नाम सोमवारी बाबा पड़ गया।
1900 के में सिद्ध सोमवारी बाबा जी उत्तराखंड आये। और प्राचीन खगमरा, वर्तमान अल्मोड़ा सोमवारी बाबा की तपस्थली रही है। सोमवारी बाबा को उनके उच्चारण , बोलने के तरीके से लोग सिंध क्षेत्र के मानते थे। काकड़ीघाट और पदमपुरी में उनके प्रमुख आश्रम थे। काकड़ीघाट में उन्होनें काफी समय बिताया। सोमवारी बाबा के गुरु मूलतः मुस्लिम फ़क़ीर थे। सोमवारी बाबा के शिष्यों में हिन्दू मुस्लिम सभी धर्मों के लोग थे। दीन दुखियों की सेवा करना, कर्तव्य की प्रेरणा देना, युवाओ को उत्त्साहित करना उनके प्रमुख कार्य थे।
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सोमवारी बाबा के हजारों भक्त थे। कई परिवार उनकी छत्र छाया में फले फुले। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री नारायण दत्त तिवारी जी के ,आराध्य देव एवं प्रेरणा श्रोत थे। बाबा केवल लंगोट धारण करते थे। सिर में स्वच्छंद रहती थी। और हाथ मे चिलम रहती थी । कहाँ जाता है, कि सोमवारी बाबा जी के ऊपर माँ अनपूर्णा की कृपा थी। सोमवारी बाबा जी के आश्रम में कभी भी भोजन की कमी नही होती थी।
कहते हैं एक बार प्रसाद कम बना था, क्योंकि केवल बहुत कम भक्त आये थे। फिर अचानक भक्तों की बहुत बड़ी टोली आ गई। सोमवारी बाबा के शिष्य संकोच के साथ प्रसाद बॉटने लगे। तब अंतर्यामी बाबा सारी बात समझ गए। बाबा बोले, निसंकोच दिल खोल कर प्रसाद बांटो,बाबा की बात सुनकर, सोमवारी बाबा के शिष्यों में नई स्फूर्ति आ गई। कहते लगभग आधा किलो प्रसाद से बहुत सारे भक्त तृप्त होकर आश्रम से गये। ऐसे थे सोमवारी बाबा। कहते हैं कैची धाम की स्थापना का परिचय , नीम करौली महाराज को सोमवारी बाबा (somvari baba ) ने दी थी। कहते हैं
नीम किरोली बाबा भी सोमवारी आश्रम आते रहते थे।और बाबा हैड़ाखान को सोनवारी बाबा के समकालीन माना जाता है। कहते हैं ये दोनों सिद्ध आत्माएं । एक दूसरे की तारीफ करते थे।
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उपसंहार – भवाली से काकड़ीघाट तक का एरिया प्राचीन संतो की तपोस्थली और कर्म भूमि के रूप में माना जाता है। जिस जगह पर स्वामी विवेकानंद को ज्ञान प्राप्त हुआ ,वो काकड़ीघाट सरकारी तंत्र की उपेक्षा का शिकार है। यहाँ बहुत बड़ा पर्यटन स्थल बन सकता है। आस पास घूमने लायक भी बहुत अच्छी जगह है।
दो नदियों के बीच संगम पर बसा यह कस्बा , आकर में छोटा जरूर है। लेकिन धार्मिक महत्व के बारे में यह क्षेत्र बड़े बड़े प्रतिष्ठित क्षेत्रो को टक्कर देता था। आज भी इसे सही रख रखाव मिल जाय, तो यह उत्तराखंड के शीर्ष धार्मिक स्थलों में गिना जाएगा।