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उत्तरायणी कौतिक पर निबंध :
उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर में यहाँ के मेलों का विशेष स्थान है। इन मेलों के माध्यम से न केवल धार्मिक आस्था प्रकट होती है, बल्कि स्थानीय परंपराएँ, कला और सांस्कृतिक विविधता भी प्रदर्शित होती हैं। इनमें से एक प्रमुख मेला है—उत्तरायणी मेला, जिसे उत्तरायणी कौतिक (uttarayani kautik mela ) भी कहा जाता है। यह मेला कुमाऊं क्षेत्र में माघ महीने की मकर संक्रांति के दिन आयोजित होता है और इसका सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है।
उत्तरायणी कौतिक कुमाऊं के बागेश्वर जिले में स्थित सरयू और गोमती नदियों के संगम पर आयोजित होता है। इस स्थान को कुमाऊं में तीर्थराज प्रयाग के समान सम्मान प्राप्त है। यहाँ भगवान शिव बागनाथ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मकर संक्रांति का दिन हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है, और इस दिन विशेष रूप से दान और स्नान का महत्व है। उत्तरायणी मेला इस दिन को लेकर एक धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें श्रद्धालु माघ मास के स्नान के लिए आते हैं और संगम में पवित्र स्नान करके बागनाथ जी के दर्शन करते हैं।
उत्तरायणी मेला की शुरुआत प्राचीन काल से हुई, जब यह एक व्यापारिक मेला था। उस समय लोग माघ मास के स्नान के लिए कई दिन पहले अपने घरों से निकलकर बागेश्वर पहुँचते थे। यातायात के साधन कम होने के कारण वे नदी के किनारे तंबू लगाकर रहते थे और रास्ते भर गीत और संगीत के साथ सफर करते थे। इस समय वाद्य यंत्रों का प्रयोग भी किया जाता था, जैसे हुड़का, और लोग सांस्कृतिक गीत गाते हुए मेला स्थल पर पहुँचते थे। धीरे-धीरे यह मेला ( uttarayani kautik ) सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मेला भी बन गया।
उत्तरायणी कौतिक का स्वतंत्रता संग्राम से भी गहरा संबंध है। 14 जनवरी 1921 को कुमाऊं के राष्ट्रीय नेताओं के नेतृत्व में इस मेले के दौरान अंग्रेजों द्वारा तैयार किए गए “कुली बेगार रजिस्टरों” को सरयू नदी में फेंक कर कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने का संकल्प लिया गया। यह घटना मेला के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई और इसने उत्तरायणी मेला को एक ऐतिहासिक महत्व प्रदान किया।
यह मेला धार्मिक महत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। मेला स्थल पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, जैसे लोकनृत्य, गीत, और कुमाऊं की पारंपरिक कला की प्रस्तुतियाँ। भगनौल, बैर, जोड़ और न्योली जैसे कुमाऊं के लोकगीत और नृत्य प्रस्तुत होते हैं, जो यहाँ के सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखते हैं।
साथ ही, उत्तरायणी कौतिक व्यापारिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस मेले में दूर-दूर से व्यापारी आते हैं और ऊन से बने सामान, पश्मीने, कम्बल, चटाई, पहाड़ी जड़ी-बूटियाँ, शिलाजीत, और अन्य उत्पाद बेचते हैं। इससे न केवल व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं, बल्कि कुमाऊं की अर्थव्यवस्था को भी बल मिलता है।
इस प्रकार, उत्तरायणी मेला कुमाऊं की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का प्रतीक है। यह मेला न केवल कुमाऊं की लोक जीवन और कला को प्रदर्शित करता है, बल्कि यहाँ के लोगों को एकजुट करने और उनकी सामाजिक परंपराओं को जीवित रखने का कार्य भी करता है। उत्तरायणी कौतिक ( uttarayani kautik mela ) कुमाऊं की संस्कृति के लिए संजीवनी बूटी की तरह कार्य करता है और इसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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