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पहाड़ी कहावत “खसिया की रीस और भैस की तीस” में छुपी है पहड़ियों की ये कमजोरी।

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उत्तराखंड के पहाड़ो में एक कहावत कही जाती है,”खसिया की रीस और भैस की तीस ” लोकाचार में इसका अर्थ लिया जाता है , क्षत्रिय का गुस्सा और भैस की प्यास अप्रत्याशित होती है। क्षत्रिय के गुस्से और भैस की प्यास  अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। मगर वास्तव में खसिया की रीस और भैस की तीस नामक पहाड़ी कहावत में खसिया का मतलब क्षत्रिय नहीं बल्कि वे सभी जातियाँ या वर्ण हैं जो उत्तराखंड के पहाड़ो में रहते हैं ,जो उत्तराखंड के मूल निवासी हैं। क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों और नेपाल व हिमालयी भाग  में पहले खस जाती के लोग रहते थे। इसलिए आज के पहाड़ियों में से कई उनके वंशज हैं या आज भी पहाड़ी समाज  में खस प्रवृति जिन्दा है।

पहाड़ी कहावत

वायुपुराण में उत्तराखंड के पहाड़ी भाग को “खशमण्डल” भी कहा गया है। हिमालय के इस भाग में खसो की उपस्थिति का उल्लेख सातवीं शताब्दी से मिलता है। हिमालय की अन्य जनजातियों के सामान इनका अपना अलग व्यक्तित्व और अस्तित्व था। उत्तराखंड के मंडल मिश्रित नामों (कुमाऊं और गढ़वाल) के प्रचलन से पहले यह मध्य हिमालय का सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही नाम से जाना जाता था। बताते हैं भारत में आर्यों के प्रवेश से पहले ,हिमालय की अनेक जातियों में से खस और किरात जाती प्रमुख थी। महाभारत काल से हजारवीं शताब्दी तक पुरे हिमालय में राज करती थी। खस जाती के लोग मध्य एशिया से हिमालयी क्षेत्रों में आकर बसे। उन्होंने इस क्षेत्र में कठोर परिश्रम  करके इस हिमालयी दुर्गम क्षेत्र को रहने लायक बनाया। जम्मू ,हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड ,नेपाल आदि क्षेत्रों जहाँ भी खस जाती के लोग रहे या शाशन किया वहां की सभ्यता पर आज भी खसिया प्रभाव है।

इस जाती के लोग नेक और ईमानदार होते हैं। खस जाती के लोग मूलतः शांतिप्रिय होते हैं , अत्यधिक जरुरत पड़ने पर ही हिंसक होते हैं या क्रोधित होते हैं। इनका गुस्सा अप्रत्याशित होता है। अर्थात वैसे तो अमूमन शांत होते हैं लेकिन जब गुस्सा आता है तो ,अपना पराया नहीं देखते हैं। इसी वजह से इनके ऊपर एक पहाड़ी कहावत भी है ,खसिया की रीस और भैस की तीस। पहाड़ी भाषा में रीस का मतलब गुस्सा होता है। और तीस का मतलब प्यास होता है। इनके स्वभाव में छल कपट और चतुराई न होने के कारण चतुर लोगो में पाई जाने वाले लचीलेपन का आभाव रहता है। इसी तरह  की अनेक खूबिया आज के पहाड़ी समाज में भी पाई जाती है। जो कही न कही खसों के वंशज है या उनमे खसिया प्रभाव आज भी है। हालांकि हम में से कई पहाड़ी खुद को खसिया कहलाना पसंद नहीं करते हैं।

पहाड़ो के प्राचीन निवासी। फोटो साभार -सोशल मीडिया

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खसिया जाती या खसिया प्रवृति के लोगो की एक सबसे बुरी आदत यह होती है कि , ये लोग दूसरों के लिए जान देते हैं। लेकिन अपनों की उपेक्षा करते हैं। अपनों को आगे बढ़ता नहीं देख सकते हैं। ये दुसरो के लिए जान देने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन अपने समाज के लोगों का साथ नहीं देते। इसका ज्वलंत उदाहरण, पहाड़ी हर चीज में अग्रणीय होते हुए आज अपनी जमीन तक नहीं बचा पा रहे हैं। बाहरी लोग उनकी जमीने कब्जाने में लगे हैं ,लेकिन इसका अहसास केवल उसी को है जिसकी जमीन जा रही है। दूसरा इस अहसास का अनुभव करने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। दूसरों के लिए जीना बहुत अच्छी बात है ,लेकिन इसके साथ -साथ अपने लिए भी जीना जरुरी है। तभी समाज की उन्नति संभव है।

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