Home संस्कृति बूढ़ी देवी जिसको उत्तराखंड के लोग लकड़ियाँ और पत्थर चढ़ाते हैं

बूढ़ी देवी जिसको उत्तराखंड के लोग लकड़ियाँ और पत्थर चढ़ाते हैं

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बूढ़ी देवी –

बचपन में जब पहली बार दादी के साथ पहाड़ की ऊँची नीची पगडंडियों पर पैदल सफर पर गया, तो रास्ते  में दादी ने हाथ में एक सुखी लकड़ी पकड़ ली, मैंने जिज्ञासा वश पूछ लिया, दादी ये लकड़ी क्यों उठाई? दादी ने बताया आगे बूढ़ी देवी को चढ़ाएंगे।

आगे गए दादी ने चौराहे जैसे रस्ते पर बहुत सारी लकड़ियों के ढेर के ऊपर वो लकड़ी डाल दी, और हाथ जोड़ कर आगे बढ़ गई! मै बहुत चकित हुवा , मैंने दादी से पूछा , ये कैसा मंदिर? ना मूर्ति है ना मंदिर है!!

फिर बाद में एक दिन पहली बार जब मै माँ ,चाची लोगो के साथ  दूर जंगल गया लकड़ियाँ लेने, तब माँ, चाची लोगो ने भी जगंल में एक तिराहे पर दर्रे जैसी जगह पर बूढ़ी देवी को लकड़ियां चढाई, फिर मैंने सोचा जंगलों औरतों में अल्पायु मरी हुई को पूजते होंगे।

बात आई गई हो गई लेकिन आज जब में प्रो dd शर्मा जी पुस्तक उत्तराखंड ज्ञान कोष पढ़ रहा था। कठपुड़िया देवी या बुढ़ देवी का अध्याय पढ़ते  ही मै खुश हो गया। मेरे बचपन के सवालों के उत्तर मिल गए थे।

कौन है बूढ़ी देवी –

बूढ़ी देवी कुमाऊं मंडल पूर्वी शौका जनजाति द्वारा मार्गरक्षिका देवी के रूप में पूजित देवी है। इस देवी का न कोई मंदिर होता है ,न मूर्ति और न ही पूजा का कोई नियत समय या विधिविधान। कठपुड़िया का अर्थ है , काष्ठ , पत्थर की भेंट स्वीकार करने वाली देवी।

प्राचीन काल में ,पहाड़ी मार्गो में , खासकर पहाड़ी दर्रों पर एक मार्ग रक्षिका देवी की स्थापना की जाती थी। जहाँ पर यात्री चढाई वाले मार्ग की चढाई पार करने के बाद ,और जंगल के हिंसक पशुओं से बचकर ,सकुशल पहुंच जाने पर ,रक्षा प्रदान करने वाली दैवीय शक्ति के प्रति अपना आभार प्रकट करने के लिए अपना श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। परन्तु रूखे सूखे पहाड़ों पर कुछ भी उपलब्ध ना होने और , वहां सर्वसुलभ पत्थर या लकड़ी  को अपनी भेंट के रूप में अर्पित करता था।

बूढ़ी देवी

शाकल्य स्थापिते देवि ! यञवल्क्येन पूजिता। काष्ठपाषाणभक्षन्ति पथिरक्षा करोतु मे।

इसका अर्थ है,  शाकल्य मुनि द्वारा स्थापित, और यञवल्क्य मुनि द्वारा पूजित  हे देवी !! आप केवल पत्थर और लकड़ियों की भेंट से संतुष्ट हो जाती हो।  आप इस कठिन पर्वतीय मार्ग में हमारी रक्षा करना। इस श्लोक से सिद्ध होता है, कि इस पूजा परम्परा का आरम्भ शालक्य मुनि ने किया था। कुमाऊं में कठपुड़िया देवी , बुड देवी आदि नामो से पुकारी जाती है। इससे अनेक कार्य सिद्ध होते थे।  पहले  रास्तों में, मार्गों में दिशासूचक चिन्ह नहीं होते थे।

पत्थरों के जमावट या लकड़ियों की जमावट से, पथिको को मार्ग का पता चल जाता था। दूसरा पहाड़ो पर दूसरी तरफ से आने वाले आक्रमणकारियों का खतरा बना रहता था। संकट के समय , ये पत्थरों का जमाव दुश्मनो से पाषाण युद्ध (बग्वाल) करने के काम आता था। और लकड़ियों का जमाव, जब कोई पथिक को मज़बूरी में रास्ते में रात गुजारनी पड़े तो आग जलाने के लिए बूढ़ी देवी को चढाई हुई लकडिया काम आ जाती थी।

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इस प्रकार देखा जाता है कि पर्वतीय पथिक, लकड़ी, घास दोहन करने वाले या शौका लोग या पशुचारक लोग, पर्वतीय दर्रो पर, या पर्वतीय मार्गों के तिराहे या चौराहे पर, पत्थर या लकड़ियां अर्पित करते थे। कई लोग आज भी करते हैं। सोमेश्वर विधानसभा क्षेत्रों के कतिपय गावों, या पर्वतीय मार्गों पर भी यह परम्परा निभाई जाती है।

बूढ़ी देवी के बारे में जानकारी संदर्भ – प्रोफ़ेसर DD शर्मा जी की पुस्तक “उत्तराखंड ज्ञानकोष ” 

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