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असुर बाबा – पिथौरागढ़ सोर घाटी के शक्तिशाली लोकदेवता की कहानी !

Asur devta of Pithoragarh Uttarakhand

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असुर बाबा मंदिर असुर चुला पिथौरागढ़ उत्तराखंड।

प्रस्तुत लेख में हम उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में पूजित असुर बाबा (Asur devta of Pithoragarh Uttarakhand ) के बारे में प्रचलित लोककथाओं और उनकी पूजा पद्धति का संकलन करने जा रहे हैं। असुर देवता के बारे में जानने से पहले असुर कौन थे उनके बारे में संक्षिप्त परिचय जान लेते हैं –

असुर कौन थे संक्षिप्त परिचय –

विद्वानो के अनुसार पौराणिक काल में असुर शब्द का प्रयोग उन देवताओं के लिए किया जाता था जो मायावी शक्तियों में पारंगत थे। बाद में धीरे -धीरे ये शब्द नकारात्मक प्रवृति के लोगो या दूसरे को नकारात्मक रूप से इंगित करने के लिए किया जाने लगा था।  इसके अलावा पौराणिक कहानियों और पुरातत्विक जानकारियों के आधार पर आरम्भिक युग असुर और आर्य दो संस्कृतियां रहती थी। हिमालयी भू भाग पर असुरों का अधिपत्य था ,हिमालयी भू भाग पर कब्ज़ा करने के लिए आर्यों को लगभग 40 वर्षो तक असुरों से युद्ध लड़ना पड़ा तब असुरों को हार कर ईरान या असीरिया की तरफ पलायन करना पड़ा। लेकिन कुछ शक्तिशाली असुर सही मौके पर अपने प्रतिशोध के इंतजार में यहीं रूक गए।

इन्होने उच्च हिमालय में शरण ली और सही समय पर अपने दुश्मनो यानि आर्यों से प्रतिशोधात्मक युद्ध भी लड़े जिनका उल्लेख पौराणिक कहानियों में मिलता है। बताया जाता है कि भगवान् शिव असुरों के आराध्य देवता थे। जैसा की विदित है आरम्भिक काल में असुर और आर्य दो संस्कृतियां निवास करती थी। जिसमे आर्य संस्कृति ने अपना सर्वांगीण विकास किया सम्भवतः समाज में उन्हें अच्छे अवसर मिले होंगे। लेकिन असुर जाती सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से जीवन यापन करने के चक्कर में अपने लिए सुरक्षा उपकरणों का विकास करते रह गए या फिर हो सकता है उन्हें समाज में उनके अनुसार समुचित लाभ या अवसर नहीं मिले जिस वजह से वे और भी हिंसक हो गए। लेकिन सही मार्गदर्शन और अपनी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में लगाने के कारण कई असुरों ने समाज में अच्छा नाम कमाया यहाँ तक कि उन्हें देवत्व की प्राप्ति भी हुई ,जिनमे भक्त प्रह्लाद और राजा बलि का नाम प्रमुख है। और अपनी बुद्धि चातुर्य से उच्च पद हासिल करने वालों में राहु का नाम प्रमुखतया से लिया जाता है। जिनका उत्तर भारत का एकमात्र देवालय उत्तराखंड के पौड़ी जिले में स्थित है।

पढ़े –राहु मंदिर पैठाणी उत्तराखंड , उत्तर भारत का एकमात्र राहु मंदिर। 

सोर घाटी के असुर बाबा –

ये तो था असुर या असुरों के बारे में संक्षिप्त परिचय। अब बात करते हैं हिमालयी सभ्यता में बसे पिथौरागढ के लोक देवता असुर बाबा के बारे में। जैसा की उपरोक्त में हमने बताया कि प्राचीन काल में हिमालयी क्षेत्र में असुर संस्कृति के लोगो का निवास था। जिसको चम्पावत में बाणासुर का किले के अवशेष ,जालंघर की पत्नी वृंदा देवी उर्फ़ बानड़ी देवी का मंदिर आदि पुख्ता करते हैं। इसके अलावा पिथौरागढ़ शहर के सिल्थाम बस अड्डे के सामने असुरचूल नामक पहाड़ी पर असुर देवता का प्राचीन मंदिर है।

सम्भवतः यह मंदिर भी उस समय की असुर सभ्यता से जुड़ा होगा लेकिन वर्तमान में उत्तराखंड में प्राचीन संस्कृतियों के सभी लोगों की मिली जुली सांख्य निवास करती है जिनमे आर्य ,असुर ,नाग ,खश ,गंध्रव मिक्स हैं। जिन्हे वर्तमान में कुमाउनी संस्कृति ,गढ़वाली संस्कृति या फिर पहाड़ी संस्कृति के नाम से जाना जाता है। वर्तमान समाज आर्यबाहुल होने के कारण अधिकांश लोग आर्य संस्कृति का पालन करते हैं लेकिन पहाड़ो में आर्य परम्पराओं से इत्तर कुछ अलग परम्पराएं भी मानी जाती हैं जो संभवतः अन्य संस्कृतियों से जुडी होंगी।

असुर देवता से जुडी लोक कथाएं या मान्यताएं –

इस देवता की पूजा  प्रचलन में कई जनश्रुतिया प्रचलित हैं। एक में कहा गया है कि प्राचीन काल में सोर घाटी एक विशालकाय तालाब क्षेत्र थी। इसके चारों ओर घने जंगल थे जहां ऋषि मुनि तप करते थे और उनके आशीर्वाद से ये असुर योनि से मुक्त होकर देवत्व को प्राप्त हो गए। यहाँ के अन्य देवी देवताओं के साथ इनकी पूजा होने लगी। एक दूसरी लोककथा के अनुसार यह देव शक्ति असुर कन्या से उत्पन्न इंद्र का पुत्र था। जब बड़ा होकर ये इंद्र के पास अपना हक़ मांगने गए तो इंद्र ने इन्हे अपने वज्र से नष्ट करना चाहा लेकिन सफल नहीं हो पाए और मजबूरी में इन्हे अपना पुत्र मानना पड़ा। पौराणिक जानकारियों में भी बताया गया है कि इंद्र को आर्य संस्कृति की स्थापना के लिए हिमालयी क्षेत्र में लगभग 40 वर्षों तक युद्ध लड़ना पड़ा था।

इसके अलावा असुर देवता के संबंध में यह भी कहा जाता है कि ये छिपुलाकोट के राजा मलयनाथ के पुत्र हैं। कहा जाता है कि जब छिपुलाकोट में छिपुला बंधुओं का राज था तब सिराकोट में मलयनाथ का राज था। कहते हैं छिपुलाकोट राजरानी भाग्यश्री परम सुंदरी थी। उसकी सुंदरता से मोहित होकर मलयनाथ साधुवेश वहा गया और अपनी तंत्रविद्या के बल पर उसे अपनी झोली में डालकर ले आया। सिराकोट में उसे अपनी रानी बना दिया उससे उत्पन्न पुत्र का नाम असुर रखा और उसे अपने राज्य का दक्षिण भाग का अधिपति बना दिया।

असुर बाबा
असुर देवता मंदिर असुर चुला पिथौरागढ़ उत्तराखंड।

अभी तक है सीराकोट और छिपुलाकोट के वैमनस्य का प्रभाव –

कहा जाता है कि मलयनाथ द्वारा रानी का अपहरण के कारण छिपुलाकोट और सीराकोट में वैमनस्य की स्थिति उत्पन्न हो गई थी , जो अभी तक इनकी पूजा परम्पराओं में विध्यमान है। इसकी वैमनस्य के कारण मलयानाथ और असुरदेवता के अनुयायी छिपुलाजात (देवयात्रा ) में भाग नहीं लेते हैं। और वहीँ छिपुलाकोट के अनुयायी मलयनाथ और असुर देवता के मंदिर और पूजा से परहेज करते हैं। छिपुलाकोट मंदिर के पास असुरकुण्ड नामक तालाब के जल को अपवित्र मानकर छिपुलाजात के यात्री वहां स्नान नहीं करते हैं।

असुर बाबा की पूजा पद्धति –

असुर देवता का प्रभाव मुख्यतः इसके पुर्वीत्तरीय भागों पिथौरागढ़ की सोर घाटी रामगंगा को कालीगंगा से मिलाने वाली पर्वतीय घाटी के गावों में पाया जाता है। असुर देवता का मंदिर असुरचूल पर्वत पर खुले आसमान के नीचे स्थापित है। यहाँ एक लम्बी शिला को असुर बाबा का प्रतीक मानकर उनकी पूजा के जाती है। इनको नमकीन खीर का भोग लगाया जाता है। अर्थात खीर में चीनी के स्थान पर नमक डाला जाता है। ऐसे नेत्रन्य कोण अर्थात दक्षिण -पश्चिम दिशा की ओर मुँह करके अर्पित किया जाता है। नमकीन खीर के अतिरिक्त मादक पदार्थ भी अर्पित किये जाते हैं। ये देवता वैसे तो मांस न खाने वाले हैं लेकिन इनके गणो को कभी कभी बलि भी दी जाती है। उनके ये वीर देवता के अनुयायीओं को कष्ट पहुंचाने वाले को दण्डित करते हैं। और एक खास बात इनकी पूजा के समय वाद्य यंत्र के साथ तांडव किया जाता है।

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संदर्भ- प्रो DD शर्मा जी की पुस्तक उत्तराखंड ज्ञानकोष एवं कल्चर हिस्ट्री ऑफ़ उत्तराखंड।

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