Saturday, April 12, 2025
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पहाड़ की बूढ़ी दिवाली 2024 का जश्न अभी बाकी है।

बूढ़ी दिवाली 2024 :-

“देश भर में अपनी अलग और अनोखी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र और हिमाचल के कुछ क्षेत्रों में दिवाली 01 दिसम्बर 2024 को मनाई जाएगी । जिसे पहाड़ की बूढ़ी दिवाली कहते हैं। यह पर्व दीपावली के ठीक एक माह बाद मनाया जाता है। और इसी के साथ उत्तरकाशी की गंगा घाटी में मंगसीर बग्वाल और यमुना घाटी में देवलांग बड़े धूम धाम से मनाई जाती है।

जैसा कि हमे ज्ञात है, कि समस्त गढ़वाल  में 4 बग्वाल मनाई जाती है। इन बग्वालों मे गढ़वाल, कुमाऊं और जौनसार उत्तराखंड की तीनों संस्कृतियों की अपनी दिवाली मनाई जाती है। जिसे बूढ़ी दिवाली के नाम से जानते है। हरिबोधनी एकादशी को गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में इगास बग्वाल के रूप में बूढ़ी दीवाली जाती है। और देव दीपावली ,कार्तिक पूर्णिमा को कुमाऊं क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। वहीं मुख्य दीवाली के ठीक एक माह बाद जौनसार में बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। यह दीपावली उत्तराखंड के साथ साथ हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में भी मनाई जाती है।

यह पारम्परिक पर्व पांच दिन तक चलता है। पटाखों प्रदूषण से मुक्त और आपस मे एकता और खुशियों का संदेश देने वाली ये दिवाली असली इको फ्रैंडली दीपावली होती है। यह दिवाली कुल मिलाकर 5 दिन की होती है। पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला , तीसरे दिन बड़ी दिवाली , चौथे दिन बिरुड़ी और पांचवे दिन जनदोई मेले के साथ दिवाली का समापन होता है।

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जौनसार में बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे अलग अलग मत हैं। बड़े बूढ़े बुजुर्गों के अनुसार यहां ,भगवान राम के वापस आने का पता एक माह बाद चला इसलिए यहाँ एक माह बाद यहां दिवाली मनाते हैं। जबकि यहां के युवाओं का मत हैं कि, मुख्य दिवाली के समय खेती का काम चल रहा होता है। सबको एक साथ इक्क्ठा होने का समय भी नही होता। एक माह बाद सब काम निपटाकर सब मिल कर खुशियां मनाते हैं।

कुछ इस प्रकार मनाई जाती है, जौनसार की बूढ़ी दिवाली :-

जौनसार की पहाड़ की बूढ़ी दिवाली के दिन , परम्परा अनुसार गाँव के कुछ दूर लकड़ियों का ढेर बनाते हैं। इसे होला कहते हैं। पहले दिन रात को होला जला कर , ढोल दमू के साथ नाचते गाते, मशाल जलाते हैं। और मशाल लेकर दिवाली के गीत गाते हुए ,गाव आते हैं। बूढ़ी दिवाली के दूसरे दिन पंचायत भवन के आंगन में अलाव जलाकर । नाचते गाते हैं।

खास है  भिरूढ़ि परम्परा :-

जौनसार की बूढ़ी दिवाली पर भिरूढ़ि परम्परा बहुत खास है। इस परंपरा में लोग पंचायत भवन के आंगन में अपने इष्ट देवता के नाम के अखरोट जमा करते हैं, और दीवाली के गीत गाते हैं । दिवाली के गीत के बाद ,गाव का मुखिया इन अखरोटों को आंगन में फैला देता है। और लोग इन्हें देव प्रसाद के रूप में अधिक से अधिक एकत्र करने की कोशिश करते हैं।

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बूढ़ी दिवाली

पारम्परिक परिधान लोक गीतों व लोकनृत्य के साथ पहाड़ की बूढ़ी दिवाली का मजा दोगुना हो जाता है :-

इस त्योहार पर महिलाएं व पुरूष एकत्र होकर ,जौनसारी लोकगीत गाते हैं। और जौनसारी नृत्य हारुल, रासो ,नाटी आदि का आनंद लेते हैं। इस त्यौहार की खासियत यह है, कि यहां के लोग इसे अलग अलग नगरों में नही मनाते, बल्कि अपने गावँ जाकर ,एकसाथ पारम्परिक वस्त्रों में धूम धाम से मनाते हैं।

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खास होते हैं बूढ़ी दिवाली पर बनने वाले च्युड़े ( चिवड़े ):-

जौनसार की बूढ़ी दिवाली में ,मेहमानों को चिवड़ा ,मूडी व अखरोट देते हैं। दिवाली का खास आकर्षण होता है। पहाड़ों प्रसिद्ध व्यंजन चिवड़ा। चिवड़ा चावल से बना एक विशेष खाद्य है। जो काफी समय तक चलता है। चिवड़ा बनाने के लिए , धान को कई दिन पहले से भिगाने डाल देते हैं। उसके बाद उसे आंछ में सेक कर ,ओखली में कूट कर चपटे कर दिया जाता है। और साफ करके इसको खाते हैं।  चिवड़े का प्रयोग कुमाऊं में मुख्य दिवाली में किया जाता है। कुमाऊं में यम द्वितीया पर बग्वाई त्योहार मनाया जाता है।

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छोटी दीपावली पर खास होता है उत्तराखंड का यमदीप उत्सव या यमदीप मेला।

हरिबोधिनी एकादशी के दिन खास होती है कुमाऊनी बूढ़ी दिवाली और गढ़वाल की इगास बग्वाल

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Bikram Singh Bhandari
Bikram Singh Bhandarihttps://devbhoomidarshan.in/
बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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