Monday, May 26, 2025
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सास बहु का खेत, कुमाऊं की पुराणी और बहुत ही मार्मिक लोक कथा

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में बिलौनासेरा में एक बहुत बड़ा खेत है। जिसका नाम सासु बुवारी खेत या सास बहु का खेत के नाम से जाना जाता है। इस खेत का नाम सास बहु का खेत क्यों पड़ा ? इसके पीछे बड़ी मार्मिक लोक कथा छुपी है। आज इस लेख में जानते हैं इस मार्मिक लोक कथा को।

पहाड़ों के लोग बहुत मेहनतकश होते हैं। पहाड़ में आदमियों से अधिक महिलाएं ज्यादा मेहनती होती है इसमें कोई दोराह नहीं है। पहाड़ों में जब फसलों का कार्य शुरू होता है तो ,वे काम की पूर्ति में पुरे जी जान से लग जाती है। ना दिन देखती है न रात ,उन्हें तो बस अपना काम जल्द से जल्द पूरा करना होता है। उनके अंदर एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना होती है। उनके अंदर यह भावना होती है कि ,हमारा काम जल्द से जल्द और सबसे पहले ख़त्म हो ,ताकि लोग हमे आलसी ना बताये।

आषाढ़ का महीना था। पहाड़ो में मडुवा और अन्य फसलों की गुड़ाई का काम चरम पर चल रहा था। एक बूढ़ी सास और उसकी बहु भी पुरे जोर शोर से अपना काम पूरा करने में लगी थी। लोगों का काम लगभग निपट गया था।  लेकिन सास बहु का बिलोनसेरा का एक बड़ा खेत रह गया था। यह खेत इतना बड़ा था कि , दो लोगो से एक दिन में खेत की गुड़ाई पूरी करना संभव नहीं था। लेकिन बूढी सास के लिए ,यह इज्जत का सवाल था। लोग क्या कहंगे ? गावं  वाले बेजत्ती करेंगे .. यही सोच सोच के बुढ़िया चिंता से मरी जा रही थी। उसने यह बात अपनी बहु को बताई। और एक दिन में उस बड़े खेत की गुड़ाई ख़त्म करने की इच्छा जताई। बहु ने साफ इंकार कर दिया ! बोली इतने बड़े खेत की गुड़ाई  हम दोनों एक दिन में पूरी नहीं कर सकती हैं।

सास बहू का खेत

सास ने अपने परिवार की इज्जत और मान मर्यादा की दुहाई देकर गुड़ाई करने के लिए राजी कर लिया। उन दोनों ने मिलकर यह योजना  बनाई कि दोनों खूब मेहनत करंगे और चार दिन का काम एक दिन में निपटा देंगे। और खेत की पूरी गुड़ाई करने बाद ही भोजन करेंगे। सुबह होते ही ,दोनों ने जल्दी खाना बनाया और ,छपरी में रख कर खेत में पहुंच गई।  उन्होंने  खेत के बीचों बीच , मिट्टी  का टीला बनाकर अपने भोजन की छपरी रख दी। वर्तमान में उस स्थान पर एक गोल टीला है ,जिसे सास बहु के कलेऊ की छपरी कहते हैं। इसके बाद  दोनों सास बहु खेत के अलग -अलग कोने से गुड़ाई शुरू कर दी।  पुरे जोश और मेहनत  के साथ दोनों सास बहु गुड़ाई कर रही थी।  फिर थोड़ी देर बाद शुरू हुई आषाढ़ की निष्ठुर धूप ,यह धूप इतनी भयकर थी ,बहु का भूख प्यास के मारे कोमल चेहरा मुरझाने लगा। वह लालायित भरी नज़रों से भोजन की  छपरी की तरफ देखने लगी। उससे रहा नहीं गया उसने सास को बोला , ” ओ ज्यू पहले खाना खा लेते है , मगर सास के लिए अपनी इज्जत बहुत प्यारी थी, उसने बोला थोड़ी देर ठहर जा… बस थोड़ा बाकी है। बहु ने मुरझाये चेहरे के साथ ,कांपते हाथों के साथ फिर जुट गई काम में। वही हाल  सास के भी थे ,लेकिन सास को इज्जत प्यारी थी। संध्या होने को आ गई।  दोनों सास बहु के हालत खराब हो गए। हाथ कांपने लगे ,पैर थर्राने लगे। होंठ सूख  के मरुस्थल हो गए। लेकिन जब उन्होंने अपने  लक्ष्य की ओर नजर दौड़ाई ,तो  भोजन की छपरी नजदीक दिखाई दी। अचानक दोनों सास बहुओं की आखों में चमक सी आ गई। और वे दोनों दुगने उत्साह के साथ गुड़ाई करने लगी। और अपना कार्य समाप्त करके ,जैसे ही भोजन की छपरी के पास पहुंची , रोटी को पकड़ने से पहले दोनों वहीं  निढाल हो गई।

खेत तो जीत लिया लेकिन प्राणों से हार गई वे दोनों।

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नोट- फोटो साभार सोशल मीडिया। फीचर इमेज सांकेतिक।

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Bikram Singh Bhandari
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बिक्रम सिंह भंडारी, देवभूमि दर्शन के संस्थापक और प्रमुख लेखक हैं। उत्तराखंड की पावन भूमि से गहराई से जुड़े बिक्रम की लेखनी में इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक धरोहर, और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ उत्तराखंड के खूबसूरत पर्यटन स्थलों और प्राचीन मंदिरों का सजीव चित्रण करती हैं, जिससे पाठक इस भूमि की आध्यात्मिक और ऐतिहासिक विरासत से परिचित होते हैं। साथ ही, वे उत्तराखंड की अद्भुत लोककथाओं और धार्मिक मान्यताओं को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। बिक्रम का लेखन केवल सांस्कृतिक विरासत तक सीमित नहीं है, बल्कि वे स्वरोजगार और स्थानीय विकास जैसे विषयों को भी प्रमुखता से उठाते हैं। उनके विचार युवाओं को उत्तराखंड की पारंपरिक धरोहर के संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक विकास के नए मार्ग तलाशने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि से परिपूर्ण है। बिक्रम सिंह भंडारी के शब्द पाठकों को उत्तराखंड की दिव्य सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत की अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाते हैं, जिससे वे इस देवभूमि से आत्मिक जुड़ाव महसूस करते हैं।
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